Sunday 19 February 2017

परशुराम ने दिया कर्ण को श्राप ।


पिछले भाग में आपने पढ़ा कि कर्ण जन्म से क्षत्रिय था, पर उसका पालन पोषण एक रथ चालक के घर हुआ था। वो महान धनुर्धर बनना चाहता था, और वो गुरु द्रोण के पास गया। पर द्रोण ने उसे अस्वीकार कर दिया। इसके बाद उसने महान शिक्षक परशुराम के पास जाने का फैसला किया। जानते हैं आगे क्या हुआ…

कर्ण ने धारण की ब्राह्मणों की वेश भूषा

महाभारत काल में, युद्ध कला में सिर्फ मल्ल-युद्ध ही नहीं होता था, बल्कि सभी तरह के शस्त्रों को चलाना भी सिखाया जाता था। इसमें ख़ास रूप से तीरंदाजी पर जोर दिया जाता था। कर्ण जानता था कि परशुराम सिर्फ ब्राह्मणों को अपने शिष्य के रूप में स्वीकार करेंगे। सीखने की चाहत में उसने एक नकली जनेऊ धारण किया और एक ब्राह्मण के रूप में परशुराम के पास चला गया।

परशुराम ने उसे अपना शिष्य बना लिया, और वो सब कुछ सिखा दिया जो वे जानते थे। कर्ण बहुत जल्दी सीख गया। किसी भी अन्य शिष्य में उस तरह का स्वाभाविक गुण और क्षमता नहीं थी। परशुराम उससे बहुत खुश हुए।

उन दिनों, परशुराम काफी बूढ़े हो चुके थे। एक दिन जंगल में अभ्यास करते समय, परशुराम बहुत थक गए। उन्होंने कर्ण से कहा वे लेटना चाहते हैं। कर्ण बैठ गया ताकि परशुराम कर्ण की गोद में अपना सिर रख पाएं। फिर परशुराम सो गये। तभी एक खून चूसने वाला कीड़ा कर्ण की जांघ में घुस गया और उसका खून पीने लगा। उसे भयंकर कष्ट हो रहा था, और उसके जांघ से रक्त की धार बहने लगी। वह अपने गुरु की नींद को तोड़े बिना उस कीड़े को हटा नहीं सकता था। लेकिन अपने गुरु की नींद को तोड़ना नहीं चाहता था। धीरे-धीरे रक्त की धार परशुराम के शरीर तक पहुंची और इससे उनकी नींद खुल गई। परशुराम ने आंखें खोल कर देखा कि आस पास बहुत खून था।

परशुराम को पता चली कर्ण की असलियत

परशुराम बोले – ‘ये किसका खून है?’ कर्ण ने बताया – ‘यह मेरा खून है।’ फिर परशुराम ने कर्ण की जांघ पर खुला घाव देखा। खून पीने वाला कीड़ा कर्ण की मांसपेशी में गहरा प्रवेश कर चुका था। फिर भी वह बिना हिले डुले वहीँ बैठा था।

परशुराम ने उस की ओर देखकर बोले – ‘तुम ब्राह्मण नहीं हो सकते। अगर तुम ब्राह्मण होते तो एक मच्छर के काटने पर भी तुम चिल्लाने लगते।

कर्ण बोला – ‘हां, मैं ब्राह्मण नहीं हूं। कृपया मुझ पर क्रोधित न हों।’

इतना दर्द केवल शत्रीय ही सह सकता हे ।
परशुराम अत्यधिक क्रोध से भर गए। वे बोले – ‘ तुमको क्या लगता है, तुम एक झूठा जनेऊ पहनकर यहां आ सकते हो और मुझे धोखा देकर सारी विद्या सीख सकते हो? मैं तुम्हें श्राप देता हूं।’

कर्ण बोला – ‘हां मैं एक ब्राह्मण नहीं हूं। पर मैं क्षत्रिय भी नहीं हूं। मैं सूतपुत्र हूं, मैंने बस आधा झूठ बोला था।’

परशुराम ने दिया कर्ण को श्राप

पशुराम ने उसकी बात नहीं सुनी। उस स्थिति को देखते ही वे सत्य जान गए – कि कर्ण एक क्षत्रिय है।

वे बोले – ‘तुमने मुझे धोखा दिया है।

जो कुछ मैंने सिखाया है तुम उसका आनंद ले सकते हो, पर जब तुम्हें इसकी सचमुच जरूरत होगी, तब तुम सभी मंत्र भूल जाओगे जिनकी तुम्हें जरूरत होगी, और वही तुम्हारा अंत होगा।’

कर्ण उनके पैरों में गिरकर दया की भीख मांगने लगा। वह बोला – ‘कृपया ऐसा मत कीजिए। मैं आपको धोखा देने की नीयत से नहीं आया था। बस मैं सीखने के लिए बैचैन था, और कोई भी सिखाने के लिए तैयार नहीं था। सिर्फ आप ही अकेले ऐसे इंसान हैं, जो किसी ऐसे को सिखाने के लिए तैयार हों, जो कि क्षत्रिय न हो।’

बस यश प्राप्ति ही थी कर्ण की चाहत

परशुराम का गुस्सा ठंडा हो गया। वे बोले – ‘लेकिन फिर भी, तुमने झूठ बोला। तुम्हें अपनी स्थिति मुझे बतानी चाहिए थी। तुमको मुझसे बात करनी चाहिए थी। पर तुम्हें कभी झूठ नहीं बोलना चाहिए था। मैं श्राप वापस नहीं ले सकता। पर मैं देख सकता हूं कि तुम्हारी महत्वाकांक्षा राजपाट पाने या शक्तिशाली होने की नहीं है।

तुम सिर्फ यश चाहते हो, और तुम्हें यश मिलेगा। लोग हमेशा तुम्हें एक यशस्वी योद्धा की तरह याद करेंगे। पर तुम्हारे पास कभी शक्ति या साम्राज्य नहीं होगा, और तुम कभी महानतम धनुर्धर के रूप में भी नहीं जाने जाओगे। पर तुम्हारा यश हमेशा बना रहेगा, जो कि तुम्हारी चाहत भी है।’

इस श्राप को लेकर, कर्ण भटकता रहा। वह शिक्षा पाकर खुश था। खुद के सामर्थ्य को लेकर भी बहुत खुश था। पर वह इसे कहीं प्रदर्शित नहीं कर सकता था। क्योंकि सिर्फ क्षत्रिय ही युद्ध या प्रतियोगिता में भाग ले सकते थे। वह आंखें बंद करके किसी भी चीज़ पर निशाना लगा सकता था, पर अपने कौशल को प्रदर्शित नहीं कर सकता था। उसे बस यश की चाहत थी, और उसे यश प्राप्त नहीं हो रहा था।

कर्ण पहुंचा ओडिशा के कोणार्क मंदिर के पास

उदास होकर वो दक्षिण पूर्व की तरफ चला गया और समुद्र के किनारे जा कर बैठ गया। वर्तमान समय के उड़ीसा राज्य में कोणार्क के पास उस स्थान पर बैठ गया, जहां सूर्य देव की कृपा सबसे अच्छे से पाई जा सकती है। शायद कर्ण की याद में ही, कोणार्क का सूर्य मंदिर बनाया गया। वह तपस्या करने लगा और कई दिनों तक ध्यान में बैठा रहा।

खाने के लिए कुछ नहीं था, पर वह बैठ कर ध्यान करता रहा। जब उसे बहुत भूख लगी, तो उसने कुछ केकड़े पकड़कर खा लिए। इससे उसे पोषण तो मिला, पर उसकी भूख और बढ़ गई।

कुछ हफ्ते साधना करने के बाद, उसकी भूख बहुत ज्यादा बढ़ गयी। इस स्थिति में उसने, झाड़ियों में एक जानवर देखा। उसे लगा कि वह एक हिरन होगा, उसने अपना तीर और धनुष निकाला और आंखें बंद करके तीर चला दिया। उसे तीर के निशाने पर लगने की आवाज़ सुनाई दी। वह मांस से अपनी भूख को शांत करने की कल्पना करने लगा। पर झाड़ियों में जाने के बाद उसे पता चला कि वह तो एक गाय थी। वह भयभीत हो उठा। आर्य गोहत्या को सबसे बुरा कर्म मानते थे। डरते हुए, उसने गाय की ओर देखा, और गाय ने उसकी ओर – कोमल नेत्रों से देखा, और फिर हमेशा के लिए अपनी आंखें बंद कर लीं। वह व्याकुल हो उठा। उसे समझ नहीं आ रहा था, कि क्या करे। तभी, एक ब्राह्मण आया, और मृत गाय को देखकर विलाप करने लगा।

कर्ण को मिला एक और श्राप

ब्राह्मण बोला – ‘तुमने मेरी गाय को मार डाला। मैं तुम्हें श्राप दूंगा। तुम एक योद्धा लगते हो, इसलिए मैं तुम्हें श्राप देता हूं कि रण भूमि में जब तुम बहुत मुश्किल स्थिति में होगे, तब तुम्हारा रथ इतना गहरा धंस जाएगा कि तुम उसे बाहर नहीं निकाल पाओगे। और तुम तब मारे जाओगे जब तुम असहाय होगे, ठीक वैसे जैसे तुमने इस असहाय गाय को मार डाला।’

मुझे पता नहीं था कि वह एक गाय है। अगर आप चाहें तो मैं आपको सौ गाएं इसके बदले में दे सकता हूं।’

ब्राह्मण बोला – ‘ये गाय मेरे लिए बस एक जानवर नहीं थी। ये मुझे सबसे अधिक प्रिय थी। मेरी मृत गाय के बदले दूसरी गाएं देने के इस प्रस्ताव के लिए मैं तुम्हें और भी ज्यादा श्राप देता हूं।’

दोहरे श्राप के साथ, कर्ण आगे बढ़ा। उसे पता नहीं था कि उसे कहां जाना चाहिए। वह धुल के एक कण पर भी अपने बाणों से निशाना साध सकता था। पर इसका फायदा क्या था? वह क्षत्रिय नहीं था – कोई भी उसे प्रतियोगिता में शामिल होने नहीं देता, युद्ध में शामिल होने देने की तो बात ही नहीं थी। वह बिना किसी लक्ष्य के यहां से वहां भटकता रहा।

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