Sunday 19 February 2017

परशुराम ने दिया कर्ण को श्राप ।


पिछले भाग में आपने पढ़ा कि कर्ण जन्म से क्षत्रिय था, पर उसका पालन पोषण एक रथ चालक के घर हुआ था। वो महान धनुर्धर बनना चाहता था, और वो गुरु द्रोण के पास गया। पर द्रोण ने उसे अस्वीकार कर दिया। इसके बाद उसने महान शिक्षक परशुराम के पास जाने का फैसला किया। जानते हैं आगे क्या हुआ…

कर्ण ने धारण की ब्राह्मणों की वेश भूषा

महाभारत काल में, युद्ध कला में सिर्फ मल्ल-युद्ध ही नहीं होता था, बल्कि सभी तरह के शस्त्रों को चलाना भी सिखाया जाता था। इसमें ख़ास रूप से तीरंदाजी पर जोर दिया जाता था। कर्ण जानता था कि परशुराम सिर्फ ब्राह्मणों को अपने शिष्य के रूप में स्वीकार करेंगे। सीखने की चाहत में उसने एक नकली जनेऊ धारण किया और एक ब्राह्मण के रूप में परशुराम के पास चला गया।

परशुराम ने उसे अपना शिष्य बना लिया, और वो सब कुछ सिखा दिया जो वे जानते थे। कर्ण बहुत जल्दी सीख गया। किसी भी अन्य शिष्य में उस तरह का स्वाभाविक गुण और क्षमता नहीं थी। परशुराम उससे बहुत खुश हुए।

उन दिनों, परशुराम काफी बूढ़े हो चुके थे। एक दिन जंगल में अभ्यास करते समय, परशुराम बहुत थक गए। उन्होंने कर्ण से कहा वे लेटना चाहते हैं। कर्ण बैठ गया ताकि परशुराम कर्ण की गोद में अपना सिर रख पाएं। फिर परशुराम सो गये। तभी एक खून चूसने वाला कीड़ा कर्ण की जांघ में घुस गया और उसका खून पीने लगा। उसे भयंकर कष्ट हो रहा था, और उसके जांघ से रक्त की धार बहने लगी। वह अपने गुरु की नींद को तोड़े बिना उस कीड़े को हटा नहीं सकता था। लेकिन अपने गुरु की नींद को तोड़ना नहीं चाहता था। धीरे-धीरे रक्त की धार परशुराम के शरीर तक पहुंची और इससे उनकी नींद खुल गई। परशुराम ने आंखें खोल कर देखा कि आस पास बहुत खून था।

परशुराम को पता चली कर्ण की असलियत

परशुराम बोले – ‘ये किसका खून है?’ कर्ण ने बताया – ‘यह मेरा खून है।’ फिर परशुराम ने कर्ण की जांघ पर खुला घाव देखा। खून पीने वाला कीड़ा कर्ण की मांसपेशी में गहरा प्रवेश कर चुका था। फिर भी वह बिना हिले डुले वहीँ बैठा था।

परशुराम ने उस की ओर देखकर बोले – ‘तुम ब्राह्मण नहीं हो सकते। अगर तुम ब्राह्मण होते तो एक मच्छर के काटने पर भी तुम चिल्लाने लगते।

कर्ण बोला – ‘हां, मैं ब्राह्मण नहीं हूं। कृपया मुझ पर क्रोधित न हों।’

इतना दर्द केवल शत्रीय ही सह सकता हे ।
परशुराम अत्यधिक क्रोध से भर गए। वे बोले – ‘ तुमको क्या लगता है, तुम एक झूठा जनेऊ पहनकर यहां आ सकते हो और मुझे धोखा देकर सारी विद्या सीख सकते हो? मैं तुम्हें श्राप देता हूं।’

कर्ण बोला – ‘हां मैं एक ब्राह्मण नहीं हूं। पर मैं क्षत्रिय भी नहीं हूं। मैं सूतपुत्र हूं, मैंने बस आधा झूठ बोला था।’

परशुराम ने दिया कर्ण को श्राप

पशुराम ने उसकी बात नहीं सुनी। उस स्थिति को देखते ही वे सत्य जान गए – कि कर्ण एक क्षत्रिय है।

वे बोले – ‘तुमने मुझे धोखा दिया है।

जो कुछ मैंने सिखाया है तुम उसका आनंद ले सकते हो, पर जब तुम्हें इसकी सचमुच जरूरत होगी, तब तुम सभी मंत्र भूल जाओगे जिनकी तुम्हें जरूरत होगी, और वही तुम्हारा अंत होगा।’

कर्ण उनके पैरों में गिरकर दया की भीख मांगने लगा। वह बोला – ‘कृपया ऐसा मत कीजिए। मैं आपको धोखा देने की नीयत से नहीं आया था। बस मैं सीखने के लिए बैचैन था, और कोई भी सिखाने के लिए तैयार नहीं था। सिर्फ आप ही अकेले ऐसे इंसान हैं, जो किसी ऐसे को सिखाने के लिए तैयार हों, जो कि क्षत्रिय न हो।’

बस यश प्राप्ति ही थी कर्ण की चाहत

परशुराम का गुस्सा ठंडा हो गया। वे बोले – ‘लेकिन फिर भी, तुमने झूठ बोला। तुम्हें अपनी स्थिति मुझे बतानी चाहिए थी। तुमको मुझसे बात करनी चाहिए थी। पर तुम्हें कभी झूठ नहीं बोलना चाहिए था। मैं श्राप वापस नहीं ले सकता। पर मैं देख सकता हूं कि तुम्हारी महत्वाकांक्षा राजपाट पाने या शक्तिशाली होने की नहीं है।

तुम सिर्फ यश चाहते हो, और तुम्हें यश मिलेगा। लोग हमेशा तुम्हें एक यशस्वी योद्धा की तरह याद करेंगे। पर तुम्हारे पास कभी शक्ति या साम्राज्य नहीं होगा, और तुम कभी महानतम धनुर्धर के रूप में भी नहीं जाने जाओगे। पर तुम्हारा यश हमेशा बना रहेगा, जो कि तुम्हारी चाहत भी है।’

इस श्राप को लेकर, कर्ण भटकता रहा। वह शिक्षा पाकर खुश था। खुद के सामर्थ्य को लेकर भी बहुत खुश था। पर वह इसे कहीं प्रदर्शित नहीं कर सकता था। क्योंकि सिर्फ क्षत्रिय ही युद्ध या प्रतियोगिता में भाग ले सकते थे। वह आंखें बंद करके किसी भी चीज़ पर निशाना लगा सकता था, पर अपने कौशल को प्रदर्शित नहीं कर सकता था। उसे बस यश की चाहत थी, और उसे यश प्राप्त नहीं हो रहा था।

कर्ण पहुंचा ओडिशा के कोणार्क मंदिर के पास

उदास होकर वो दक्षिण पूर्व की तरफ चला गया और समुद्र के किनारे जा कर बैठ गया। वर्तमान समय के उड़ीसा राज्य में कोणार्क के पास उस स्थान पर बैठ गया, जहां सूर्य देव की कृपा सबसे अच्छे से पाई जा सकती है। शायद कर्ण की याद में ही, कोणार्क का सूर्य मंदिर बनाया गया। वह तपस्या करने लगा और कई दिनों तक ध्यान में बैठा रहा।

खाने के लिए कुछ नहीं था, पर वह बैठ कर ध्यान करता रहा। जब उसे बहुत भूख लगी, तो उसने कुछ केकड़े पकड़कर खा लिए। इससे उसे पोषण तो मिला, पर उसकी भूख और बढ़ गई।

कुछ हफ्ते साधना करने के बाद, उसकी भूख बहुत ज्यादा बढ़ गयी। इस स्थिति में उसने, झाड़ियों में एक जानवर देखा। उसे लगा कि वह एक हिरन होगा, उसने अपना तीर और धनुष निकाला और आंखें बंद करके तीर चला दिया। उसे तीर के निशाने पर लगने की आवाज़ सुनाई दी। वह मांस से अपनी भूख को शांत करने की कल्पना करने लगा। पर झाड़ियों में जाने के बाद उसे पता चला कि वह तो एक गाय थी। वह भयभीत हो उठा। आर्य गोहत्या को सबसे बुरा कर्म मानते थे। डरते हुए, उसने गाय की ओर देखा, और गाय ने उसकी ओर – कोमल नेत्रों से देखा, और फिर हमेशा के लिए अपनी आंखें बंद कर लीं। वह व्याकुल हो उठा। उसे समझ नहीं आ रहा था, कि क्या करे। तभी, एक ब्राह्मण आया, और मृत गाय को देखकर विलाप करने लगा।

कर्ण को मिला एक और श्राप

ब्राह्मण बोला – ‘तुमने मेरी गाय को मार डाला। मैं तुम्हें श्राप दूंगा। तुम एक योद्धा लगते हो, इसलिए मैं तुम्हें श्राप देता हूं कि रण भूमि में जब तुम बहुत मुश्किल स्थिति में होगे, तब तुम्हारा रथ इतना गहरा धंस जाएगा कि तुम उसे बाहर नहीं निकाल पाओगे। और तुम तब मारे जाओगे जब तुम असहाय होगे, ठीक वैसे जैसे तुमने इस असहाय गाय को मार डाला।’

मुझे पता नहीं था कि वह एक गाय है। अगर आप चाहें तो मैं आपको सौ गाएं इसके बदले में दे सकता हूं।’

ब्राह्मण बोला – ‘ये गाय मेरे लिए बस एक जानवर नहीं थी। ये मुझे सबसे अधिक प्रिय थी। मेरी मृत गाय के बदले दूसरी गाएं देने के इस प्रस्ताव के लिए मैं तुम्हें और भी ज्यादा श्राप देता हूं।’

दोहरे श्राप के साथ, कर्ण आगे बढ़ा। उसे पता नहीं था कि उसे कहां जाना चाहिए। वह धुल के एक कण पर भी अपने बाणों से निशाना साध सकता था। पर इसका फायदा क्या था? वह क्षत्रिय नहीं था – कोई भी उसे प्रतियोगिता में शामिल होने नहीं देता, युद्ध में शामिल होने देने की तो बात ही नहीं थी। वह बिना किसी लक्ष्य के यहां से वहां भटकता रहा।

Saturday 18 February 2017

भगवान बुद्ध ने क्या भेंट किया अपने पुत्र को ।



भगवान बुद्ध ने आठ सालों तक एक भिक्षुक का जीवन जिया, जिसकी शुरुआत उन्होंने अपने महल से भाग कर की थी। लेकिन बुद्धत्व मिलने के बाद एक दिन वे अपने महल पहुंचे…

शायद ही दुनिया में ऐसा कोई इंसान होगा जिसने गौतम का नाम न सुना हो। ज्यादातर लोग उन्हें बुद्ध के नाम से जानते हैं। इस धरती पर कई बार आध्यात्म की एक बड़ी लहर सी आई है। बुद्ध खुद ऐसी ही एक आध्यात्मिक लहर रहे हैं। संभवत: वह धरती के सबसे कामयाब आध्यात्मिक गुरु थे – उनके जीवन काल में ही उनके साथ चालीस हजार बौद्ध भिक्षु थे और भिक्षुओं की यह सेना जगह-जगह जाकर आध्यात्मिक लहर पैदा करती थी।

उन दिनों उन इलाकों में आध्यात्मिक प्रक्रिया सिर्फ संस्कृत में ही सिखाई जाती थी, और संस्कृत भाषा की सुविधा एक खास वर्ग को ही उपलब्ध थी। दूसरों के लिए यह भाषा सीखना वर्जित था, क्योंकि इस भाषा को ईश्वर के पास पहुंचने का जरिया माना जाता था। हर किसी की पहुंच वहां तक नहीं थी। बुद्ध ने पालि भाषा में अपनी शिक्षा रखी जो उस समय की बोलचाल की भाषा थी। इस तरह उन्होंने हर तरह के लोगों के लिए आध्यात्मिकता के दरवाजे खोल दिया। और फि र आध्यात्मिकता ने एक विशाल लहर का रूप ले लिया।

एक रात वह अपनी पत्नी- अपनी युवा पत्नी और नवजात शिशु को छोडक़र आधी रात को घर से निकल पड़े। वो एक राजा की तरह नहीं निकले, बल्कि एक चोर की तरह निकले थे- रात में घर छोडक़र गए थे। यह कोई आसान फैसला नहीं था। वह एक ऐसी पत्नी से दूर नहीं जा रहे थे, जिसे झेलना उनके लिए मुश्किल हो रहा हो। वह ऐसी स्त्री से दूर जा रहे थे, जिससे वह बहुत प्यार करते थे। वह नवजात बेटे से दूर जा रहे थे, जो उन्हें बहुत प्यारा था। वह अपनी शादी की कड़वाहट की वजह से नहीं भाग रहे थे। वह हर उस चीज से भाग रहे थे, जो उन्हें प्रिय थी। वह महल के ऐशो-आराम से, एक राज्य के राजकुमार होने से, भविष्य में राजा बनने की संभावना से, वह उन सभी चीजों से भाग रहे थे, जिन्हें हर आदमी आम तौर पर पाना चाहता है। लेकिन वे अपनी जिम्मेदारियों से भागने वाले कोई कायर नहीं थे। यह एक इंसान के साहस और ज्ञान की तड़प का परिणाम था। उन्होंने अपना महल, अपनी पत्नी, अपना बच्चा, अपना सब कुछ त्याग दिया और ऐसी चीज की खोज में लग गए, जो अज्ञात थी।

गौतम एक राजा थे, मगर उन्होंने एक भिक्षुक का जीवन जिया। आज आप इस घटना का गुणगान कर सकते हैं क्योंकि वह मशहूर हो चुके हैं। मगर मैं चाहता हूं कि आप समझें कि जब वह एक भिक्षुक की तरह चल पड़े थे, तो सडक़ पर चलते आम लोगों ने बाकी भिक्षुकों की तरह ही उन्हें भी दुत्कारा था। उन्हें उन सभी चीजों से गुजरना पड़ा जो किसी भिक्षुक को अपने जीवन में झेलना पड़ता है। जबकि वह एक राजकुमार थे और उन्होंने जानबूझकर भिक्षुक बनने का फैसला किया था।

आठ सालों की खोज के बाद, जब उन्हें पूर्ण ज्ञान प्राप्त हुआ तो उन्हें अपना एक छोटा सा दायित्व याद आया जो उन्हें पूरा करना था। जब उन्होंने महल छोड़ा था, तो उनका पुत्र एक शिशु ही था। उनकी पत्नी एक युवती थी। वह रात को चोरों की तरह, बिना किसी को बताए वहां से चले आए थे। उनके पास उस हालात का सामना करने का साहस नहीं था या वह जानते थे कि इस पूरे हालात का सामना करने की कोशिश बेकार है, उसका वैसे भी कोई हल नहीं था। इसलिए वह रात के अंधेरे में चुपचाप घर छोडक़र चले गए। आठ साल बाद जब उन्हें पूर्ण ज्ञान प्राप्त हो गया, वह बुद्ध हो गए… जब पुराने गौतम का कोई अस्तित्व नहीं बचा था, तो वह वापस आए, क्योंकि वह अपने इस छोटे से दायित्व को पूरा करना चाहते थे। वह अपनी पत्नी यशोधरा से मिलने आए, जो बहुत स्वाभिमानी स्त्री थीं।

यशोधरा को जैसे ही पता चला कि वह आने वाले हैं, वह गुस्से से पागल हो गईं। वह उन्हें किसी तरह बख्शना नहीं चाहती थीं। वह गुस्से से उबल पड़ीं और बोलीं, ‘आप एक चोर की तरह घर छोडक़र गए, आप तो एक मर्द भी नहीं हैं। आपके दिव्यता की खोज का सवाल कहां उठता है? आप एक शाही परिवार में जन्मे थे, आपके अंदर इतना साहस होना चाहिए था कि मेरा सामना करते और मुझसे लड़ते फि र अपनी मनमर्जी करते।

आप तो एक चोर की तरह भाग गए और अब वापस आकर दावा कर रहे हैं कि आपको ज्ञान प्राप्त हो गया है, आप बुद्ध हैं। मुझे इस तरह के फ र्जी ज्ञान में कोई दिलचस्पी नहीं है।’ उन्होंने यशोधरा से कहा, ‘देखो, जिस आदमी को तुम जानती थी, उसका अब अस्तित्व नहीं है। मैं सिर्फ इस दायित्व के कारण यहां आया हूं, जिसे मैं पूरा करना चाहता हूं। मैं तुम्हारा पति नहीं हूं, न ही इस बच्चे का पिता। मेरा सब कुछ बदल चुका है। हां, मैं अब भी उसी शारीरिक रूप में हूं, मगर मेरे अंदर सब कुछ बदल चुका है।’

फिर जैसा कि इमोशनल ड्रामा के समय होता है… यशोधरा ने बच्चे को उनके सामने रखा, बच्चा लगभग आठ साल का था। उन्होंने बच्चे को बुद्ध के सामने रखते हुए कहा, ‘इसके लिए आपकी क्या विरासत है? आप और आपकी आध्यात्मिक बकवास! आप इसे क्या देकर जाएंगे? इस बच्चे के लिए आपकी धरोहर क्या है?’ उन्होंने लडक़े को देखा, फिर अपने शिष्य आनंद को बुलाया, जो वहीं मौजूद था। वह बोले, ‘आनंद, मेरा भिक्षा पात्र लाओ।’ आनंद गौतम का भिक्षा पात्र ले कर आए, जो कुछ खास नहीं एक मामूली सा कटोरा था। गौतम बोले, ‘मेरी विरासत यही है, यह सबसे बड़ी विरासत है जो मैं अपने बेटे को सौंप सकता हूं।’ और उन्होंने वह भिक्षा पात्र अपने बेटे को सौंप दिया।

भगवान बुद्ध की ज्ञान की खोज तब शुरू हुई जब उन्होंने एक ही दिन तीन दृश्य दिखे – एक रोगी मनुष्य, एक वृद्ध और एक शव को उन्होंने देखा। बस इतना देखना था कि राजकुमार सिद्धार्थ गौतम निकल पड़े ज्ञान और बोध की खोज में…

Friday 17 February 2017

पांडव बच निकले लाक्षागृह से और भीम के विवाह की कथा ।




 शकुनि ने पांडवों से छुटकारा पाने के लिए एक चाल सोची। कौरवों ने पांडवों के लिए काशी में एक महल बनवाया जो बेहद ज्वलनशील पदार्थ से बना था। धृतराष्ट्र ने सुझाव दिया कि पांडवों को आध्यात्मिक खोज के लिए वहां जाना चाहिए। पांचों भाई अपनी मां कुंती के साथ उस महल में रहने गए। विदुर ने एक गुप्त चेतावनी भेजी और एक आदमी भेजा जिसने उस महल से सुरक्षित बच निकलने के लिए एक सुरंग बनाई।

पांडवों की जगह एक निषाद स्त्री और उसके पांच पुत्र जल गए

अब आगे : कुंती ने एक निषाद स्त्री से मित्रता कर ली, जिसके पांच बेटे थे। वह अक्सर उन्हें महल में आमंत्रित करती, खूब खिलाती-पिलाती और उनकी देख-भाल करती।

एक दुर्भाग्यपूर्ण रात को उसने मेहमानों यानी निषाद स्त्री और उसके पांच बेटों के पेय में कुछ मिला दिया। मेहमानों के नींद में चले जाने के बाद पांडव और उनकी मां सुरंग से बच निकले और महल में आग लगा दी। गुप्तचर, आदिवासी स्त्री और उसके पांच बेटे आग में जलकर मर गए। विदुर ने पांडवों के बच निकलने में मदद करने के लिए कुछ लोग भेज दिए थे। महाभारत में इस घटना के बारे में एक अविश्वसनीय वर्णन है, जिसमें कहा गया है, ‘वे एक नाव में चढ़े, जहां एक सहायक पर्दे में उनका इंतजार कर रहा था। भीम ने नाव खेने के लिए चप्पू खोजे, मगर वहां कोई चप्पू नहीं था। सहायक ने कुछ लीवर चलाए और नाव धीरे-धीरे आवाज करते हुए धारा के प्रतिकूल बढ़ने लगी।’ वे हैरान थे। उन्हें पता नहीं चल रहा था कि यह सब हकीकत में हो रहा है या वे मर चुके हैं।

विदुर के सहायकों ने पांडवों को जंगल तक पहुंचा दिया

बिना किसी पतवार के, आवाज करते हुए, धारा की उल्टी दिशा में चलने वाली नाव का वर्णन किसी मोटरबोट की तरह लगता है।

हम नहीं जानते कि यह कल्पना है या वाकई उनके पास एक मोटरबोट थी, उन्होंने कहीं से उसे मंगाया था या किसी के पास इतनी दूरदृष्टि थी कि वे पांच हजार साल बाद होने वाले मोटरबोट के आविष्कार की कल्पना कर सकते थे। जो भी हो, वे धारा की विपरीत दिशा में गए और फिर घने जंगल के अंदर चले गए। जब महल जल गया और वे गुप्त रूप से बच निकले, तो सारा शहर आकर पांडवों की कथित मृत्यु पर विलाप करने लगा। हस्तिनापुर में धृतराष्ट्र ने भी शोकमग्न होने का दिखावा किया। दुर्योधन ने तीन दिन तक खाना नहीं खाने का ढोंग किया।

हर कोई मातम मनाने लगा और प्रार्थना सभाएं आयोजित की गईं। पांडवों और कुंती ने उस आग को एक दुर्घटना की तरह दिखाने के लिए हर संभव कोशिश की थी। कौरव और उनके मित्र नहीं जानते थे कि उनके दुश्मन अब भी जीवित हैं। निषाद स्त्री और उसके बेटों के शव मिलने से ऐसा लगा कि पांडव और कुंती की मृत्यु हो गई है। जब सुरंग खोदने वाले कंकन ने निषाद स्त्री और उसके पांच बेटों के शव देखे, तो उसने सोचा कि कुंती और उसके पुत्र क्या कभी इस अपराध से दोषमुक्त हो पाएंगे। कुंती का भावहीन आकलन यह था कि अगर कौरवों को शव न मिले, तो उन्हें पता चल जाएगा कि पांडव बच निकले हैं और वे उन्हें ढूंढ निकालेंगे। इसलिए छह शव वहां मिलना जरूरी था और उसे इस बात का कोई पछतावा नहीं था।

भीम ने एक राक्षस का काम तमाम किया

उन्होंने अपने सभी निशान मिटा दिए और जंगल में चले गए। वहां बहुत सी घटनाएं हुईं।

एक महत्वपूर्ण घटना यह हुई कि एक राक्षस जो आदमखोर था, ने पांचों भाइयों और उनकी मां को देखकर उन्हें खाना चाहा। मगर इसकी बजाय एक भयंकर लड़ाई में भीम ने उसे मार डाला। उस राक्षस की एक बहन थी जिसका नाम था हिडिंबा। हिडिंबा भीम के प्रेम में पड़ गई। वह एक जंगली प्राणी थी। भीम ने उसे थोड़ी सभ्यता सिखाई, उसके बाल छोटे किए, हाथ-पांव के बाल साफ किए और उसे आकर्षक रूप दिया। वह उससे प्रेम करने लगा और उससे विवाह करना चाहता था। वह उसे पाना चाहता था मगर उसे थोड़ा अपराधबोध हो रहा था क्योंकि उसका बड़ा भाई अब तक अविवाहित था।

भीम के पुत्र घटोत्कछ का जन्म

युधिष्ठिर ने उसे इस अपराधबोध से मुक्त किया। उसने कहा, ‘हां, परंपरा तो है कि बड़े भाई की शादी पहले होनी चाहिए मगर दिल किसी परंपरा को नहीं मानता और हम उसके आगे सिर झुकाते हैं।

तुम हिडिंबा से विवाह कर सकते हो।’ किसी और को हिडिंबा से कोई मतलब नहीं था। वह एक साल तक भीम के साथ रही और उसके बच्चे को जन्म दिया। बच्चे के सिर पर जन्म से ही बाल नहीं थे और उसका सिर एक घड़े की तरह था। उसका नाम घटोत्कच रखा गया, जिसका मतलब है, घड़े की तरह सिर वाला और बिना बाल वाला। उसका शरीर बहुत विशाल था। बाद में वह युद्ध में बहुत उपयोगी साबित हुआ क्योंकि वह बहुत बलशाली योद्धा बन गया था। कुंती ने देखा कि भीम बहुत घरेलू बनता जा रहा है। वह जानती थी कि अगर वह अपनी पत्नी के साथ ही रहा, तो कभी न कभी सभी भाई अलग-अलग हो जाएंगे। अगर भाई अलग-अलग हो गए, तो उन्हें राज्य कभी नहीं मिल सकता था। इसलिए उसने एक फरमान सुनाया – ‘तुम इस राक्षस स्त्री के साथ अब और नहीं रह सकते, क्योंकि यह आर्य नहीं है।’ फिर वह भीम और उसके चार भाइयों को लेकर वन से एक छोटे से नगर में रहने चली गई, जिसका नाम था एकचक्र।

Thursday 16 February 2017

कर्ण के जन्म की कथा ।



इधर महल में कौरवों और पांडवों के बीच मनमुटाव आक्रामक रूप लेता जा रहा था, उधर काल एक नया अध्याय लिख रहा था। पांडवों की माता का एक और पुत्र था। कौन था वह और क्यों नहीं था वह अपने भाइयों के साथ?

कुंती ने मन्त्र की शक्ति से सूर्य पुत्र को जन्म दिया

बचपन में कुंती ने एक बार दुर्वासा ऋषि का बहुत अच्छे तरीके से अतिथि सत्कार किया था। इससे प्रसन्न होकर, दुर्वासा ने कुंती को एक मन्त्र दिया, जिसके द्वारा वो किसी भी देवता को बुला सकती थी। एक दिन कुंती के मन में उस मन्त्र को आजमाने का खयाल आया। वह बाहर निकली तो देखा कि सूर्य अपनी पूरी भव्यता में चमक रहे थे। उनकी भव्यता देखकर वह बोल पड़ी – ‘में चाहती हूं, कि सूर्य देव आ जाएं।’

सूर्य देव आए और कुंती गर्भवती हो गयी, और एक बालक का जन्म हुआ। वो सिर्फ चौदह साल की अविवाहित स्त्री थी। उसे समझ नहीं आया कि ऐसे में सामाजिक स्थितियों से कैसे निपटा जाएगा। उसने बच्चे को एक लकड़ी के डिब्बे में रख दिया, और बिना उस बच्चे के भविष्य के बारे में सोचे, उसे नदी में बहा दिया। उसे ऐसा करने में थोड़ी हिचकिचाहट हुई, पर वो कोई भी कार्य पक्के उद्देश्य से करती थी। एक बार वो अगर मन में ठान लेतीं, तो वो कुछ भी कर सकती थी। उसका हृदय करुणा-शून्य था।

अधिरथ को मिला नन्हा कर्ण

धृतराष्ट्र के महल में कम करने वाला सारथी, अधिरथ, उस समय नदी के किनारे पर ही मौजूद था। उसकी नजर इस सुंदर डिब्बे पर पड़ी तो उसने उसको खोलकर देखा। एक नन्हें से बच्चे को देख कर वो आनंदित हो उठा, क्योंकि उसकी कोई संतान नहीं थी। उसे लगा कि ये बच्चा भगवान की ओर से एक भेंट है। वो इस डिब्बे और बच्चे को अपनी पत्नी राधा के पास ले गया। दोनों आनंद विभोर हो गए। उस डिब्बे की सुंदरता को देखकर वे समझ गए कि ये बच्चा किसी साधारण परिवार का नहीं हो सकता।

एक महान धनुर्धर बनने की इच्छा के साथ कर्ण द्रोण के पास गया। पर द्रोण ने उसे स्वीकार नहीं किया, और उसे सूतपुत्र कहकर पुकारा। सूतपुत्र का अर्थ होता है एक सारथी का पुत्र। ऐसा करके द्रोण ने इस ओर इशारा किया कि वो नीची जाती का है। इस अपमान से कर्ण को बहुत ठेस पहुँची।

राजा या फिर रानी ने इस बच्चे को छोड़ दिया है। वे ये तो नहीं जानते थे कि किसने इस बच्चे को ऐसे छोड़ दिया है, पर उसे पाकर वे बहुत खुश थे। क्योंकि इस बच्चे के कारण वे जीवन में पूर्णता महसूस कर रहे थे।उस बच्चे को बाद में कर्ण नाम से जाना गया। वह एक अद्वितीय मनुष्य था। जन्म से ही उसके कानों में सोने के कुंडल और उसके छाती पर एक प्राकृतिक कवच था। वह अद्भुत दिखता था। राधा ने बहुत प्रेम से उसका पालन-पोषण किया। अधिरथ खुद एक सारथी था, इसलिए वह कर्ण को भी रथ चलाना सिखाना चाहता था। पर कर्ण तो धनुर्विद्या सीखने के लिए बेचैन था। उन दिनों, सिर्फ क्षत्रियों को शस्त्रों और युद्ध कला की शिक्षा ग्रहण करने का अधिकार था। ये राजा की ताकत को सुरक्षित रखने का एक सरल तरीका था। क्योंकि अगर हर कोई शस्त्रों का इस्तेमाल करना सीख जाता, तो फिर सभी शस्त्रों का इस्तेमाल करने लगते। कर्ण क्षत्रिय नहीं था, इसलिए उसे किसी भी शिक्षक ने स्वीकार नहीं किया।

कर्ण को अस्वीकार किया द्रोण नें

एक महान धनुर्धर बनने की इच्छा के साथ कर्ण द्रोण के पास गया। पर द्रोण ने उसे स्वीकार नहीं किया, और उसे सूतपुत्र कहकर पुकारा। सूतपुत्र का अर्थ होता है एक सारथी का पुत्र। ऐसा करके द्रोण ने इस ओर इशारा किया कि वो नीची जाती का है। इस अपमान से कर्ण को बहुत ठेस पहुँची। भेदभाव और अपमान का बारबार सामना करने की वजह से एक सीधा-सच्चा इंसान एक अधम इंसान में बदल गया। जब भी कोई उसे सूतपुत्र कहता, तो उसकी अधमता इतनी ऊँची उठ जाती, जितनी कि उसकी प्रकृति में नहीं था। द्रोण द्वारा क्षत्रिय न होने के कारण अस्वीकार किये जाने पर, कर्ण ने परशुराम के पास जाने का फैसला किया। परशुराम युद्ध कलाओं के सबसे महान शिक्षक थे।

Wednesday 15 February 2017

क्या विदुर दुर्योधन को जन्म के समय ही मारना चाहते थे ?



पिछले ब्लॉग में आपने पढ़ा की कैसे कौरवों के आगमन  के समय ही हस्तिनापुर में अशुभ संकेत गूंजने लगे थे, आगे पढ़ते हैं कि कैसे विदुर ने दुर्योधन को जन्म के समय ही पहचान लिया था, और धृतराष्ट्र को इस बारे में आगाह किया था…

एक साल बाद, पहला घड़ा फूट गया और उससे एक विशाल शिशु निकला जिसकी आंखें सांप की तरह थी। मतलब उसकी आंखें झपक नहीं रही थीं, वे स्थिर और सीधी थीं। फिर से अशुभ ध्वनियां होने लगीं और अशुभ संकेत दिखने लगे। जो चीजें रात में होनी चाहिए, वे दिन में होने लगीं। नेत्रहीन धृतराष्ट्र को महसूस हुआ कि कुछ गड़बड़ है, उन्होंने विदुर से पूछा, ‘यह सब क्या हो रहा है? कुछ तो गड़बड़ है। कृपया मुझे बताओ, क्या मेरा बेटा पैदा हो गया?’ विदुर बोले, ‘हां, आपको पुत्र की प्राप्ति हुई है।’ धीरे-धीरे सारे घड़े फूटने लगे और सभी बेटे बाहर आ गए। एक घड़े से एक नन्हीं सी बच्ची निकली।

विदुर ने बताया, ‘आपके 100 पुत्रों और एक पुत्री की प्राप्ति हुई है। मगर मैं आपको सलाह देता हूं – अपने बड़े बेटे को खत्म कर दीजिए।’ धृतराष्ट्र बोले, ‘’क्या, तुम मुझे अपने ज्येष्ठ पुत्र को मारने के लिए कह रहे हो? यह क्या बात हुई?’ विदुर ने कहा, ‘अगर आपने अपने ज्येष्ठ पुत्र को मरवा डाला, तो आप अपना, कुरु वंश और मानव जाति का बहुत बड़ा उपकार करेंगे। आपके फिर भी 100 बच्चे रहेंगे – 99 बेटे और एक बेटी। इस बड़े पुत्र के नहीं होने से आपकी बाकी संतानों को कोई नुकसान नहीं होगा। मगर उसके साथ वे हमारे आस पास की दुनिया में विनाश ले आएंगे।

इस बीच, गांधारी ने अपने बड़े पुत्र दुर्योधन को गोद में उठा लिया। उसे कोई आवाजें सुनाई नहीं दी, न ही कोई अशुभ संकेत महसूस हुआ। वह अपने बड़े पुत्र को लेकर बहुत उत्साहित थी। वह उसे पालने और बड़ा करने के लिए बहुत आतुर थी। विदुर ने कहा, ‘बुद्धिमान लोगों ने हमेशा से कहा है कि परिवार के कल्याण के लिए किसी व्यक्ति का बलिदान, गांव के कल्याण के लिए परिवार का बलिदान और देश के कल्याण के लिए गांव का बलिदान किया जा सकता है। यहां तक कि किसी अमर आत्मा के लिए दुनिया का बलिदान भी किया जा सकता है।’

‘हे भ्राता, आपका यह शैतानी बच्चा मानवता की आत्मा को नष्ट-भ्रष्ट करने के लिए यमलोक से आया है। उसे अभी मार डालिए। मैं शपथपूर्वक कहता हूं कि उसके भाईयों को कोई नुकसान नहीं होगा और आप अपने 99 राजकुमारों के साथ आनंद से रह सकेंगे। मगर इसे जीवित नहीं छोड़ना चाहिए।’ लेकिन अपने सगे बेटे से धृतराष्ट्र के मोह ने उनकी बुद्धि खराब कर दी। फिर दुर्योधन अपने 100 भाई-बहनों के साथ हस्तिनापुर के महल में पला-बढ़ा, जबकि पांडव जंगल में बड़े हुए।

Tuesday 14 February 2017

कौरवों के जन्म पर मिले अशुभ संकेत ।


धृतराष्ट्र जन्मजात नेत्रहीन थे, मगर उनकी पत्नी गांधारी अपनी इच्छा से नेत्रहीन थी। धृतराष्ट्र चाहते थे कि उनके भाइयों की संतान होने से पहले उनको संतान हो जाए क्योंकि नई पीढ़ी का सबसे बड़ा पुत्र ही राजा बनता। उन्होंने गांधारी से खूब प्रेमपूर्ण बातें कीं ताकि वह किसी तरह एक पुत्र दे सके। आखिरकार गांधारी गर्भवती हुई। महीने गुजरते गए, नौ महीने दस में बदले, ग्यारह महीने हो गए, मगर कुछ नहीं हुआ। उन्हें घबराहट होने लगी। फिर उन्हें पांडु के बड़े पुत्र युधिष्ठिर के जन्म की खबर मिली। धृतराष्ट्र और गांधारी तो दुख और निराश में डूब गए।

चूंकि युधिष्ठिर का जन्म पहले हुआ था इसलिए स्वाभाविक रूप से राजगद्दी पर उसी का अधिकार था। ग्यारह, बारह महीने बीतने के बाद भी गांधारी बच्चे को जन्म नहीं दे पा रही थी। वह बोली, ‘यह क्या हो रहा है? यह बच्चा जीवित भी है या नहीं?

यह इंसान है या कोई पशु?’ हताशा में आकर उसने अपने पेट पर मुक्के मारे, मगर कुछ नहीं हुआ। फिर उसने अपने एक नौकर को एक छड़ी लाकर अपने पेट पर प्रहार करने को कहा। उसके बाद, उसका गर्भपात हो गया और मांस का एक काला सा लोथड़ा बाहर आया। लोग उसे देखते ही डर गए क्योंकि वह इंसानी मांस के टुकड़े जैसा नहीं था। वह कोई बुरी और अशुभ चीज लग रही थी।

अशुभ संकेत मिलने लगे

अचानक पूरा हस्तिनापुर शहर डरावनी आवाजों से आतंकित हो उठा। सियार बोलने लगे, जंगली जानवर सड़क पर आ गए, दिन में ही चमगादड़ उड़ने लगे। ये शुभ संकेत नहीं थे और इसका मतलब था कि कुछ बुरा होने वाला है। इसे देखकर ऋषि-मुनि हस्तिनापुर से दूर चले गए। चारों ओर यह खबर फैल गई कि वहां से सारे ऋषि चले गए हैं। विदुर ने आकर धृतराष्ट्र से कहा, ‘हम सब बहुत बड़ी मुसीबत में पड़ने वाले हैं।’ धृतराष्ट्र संतान के लिए इतने उत्सुक थे कि उन्होंने कहा, ‘जाने दो।’ वह देख नहीं सकते थे, इसलिए उन्होंने पूछा, ‘क्या हुआ है? हर कोई चीख-चिल्ला क्यों रहा है और यह सारा शोर किसलिए है?’

फिर गांधारी ने व्यास को बुलाया। एक बार जब व्यास ऋषि एक लंबी यात्रा से लौटे थे तो गांधारी ने उनके जख्मी पैरों में मरहम लगाया था और उनकी बहुत सेवा की थी। तब उन्होंने गांधारी को आशीर्वाद दिया था, ‘तुम जो चाहे मुझसे मांग सकती हो।’

गांधारी बोली, ‘मुझे सौ पुत्र चाहिए।’ व्यास बोले, ‘ठीक है, तुम्हारे 100 पुत्र होंगे।’ अब गर्भपात के बाद गांधारी ने व्यास को बुलाया और उनसे कहा, ‘यह क्या है? आपने तो मुझे 100 पुत्रों का आशीर्वाद दिया था। उसकी बजाय मैंने मांस का एक लोथड़ा जन्मा है, जो इंसानी भी नहीं लगता, कुछ और लगता है। इसे जंगल में फेंक दीजिए। कहीं पर दफना दीजिए।’

व्यास बोले, ‘आज तक मेरी कोई बात गलत नहीं निकली है, न ही अब होगी। वह जैसा भी है, मांस का वही लोथड़ा लेकर आओ।’ वह उसे तहखाने में लेकर गए और 100 मिट्टी के घड़े, तिल का तेल और तमाम तरह की जड़ी-बूटियों को लाने के लिए कहा। उन्होंने मांस के उस टुकड़े को 100 टुकड़ों में बांटा और उन्हें घड़ों में डालकर बंद करके तहखाने में रख दिया। फिर उन्होंने देखा कि एक छोटा टुकड़ा बच गया है। वह बोले, ‘मुझे एक और घड़ा लाकर दो। तुम्हारे 100 बेटे और एक बेटी होगी।’ उन्होंने इस छोटे से टुकड़े को एक और घड़े में डाल कर सीलबंद कर दिया और उसे भी तहखाने में डाल दिया। एक और साल बीत गया। इसीलिए कहा जाता है कि गांधारी दो सालों तक गर्भवती रही थी – गर्भ एक साल उसकी कोख में और दूसरे साल तहखाने में था।

Monday 13 February 2017

श्री कृष्ण और राधा ।


हालांकि कृष्ण और राधा ने बचपन के कुछ ही साल साथ-साथ गुजारे, फिर भी आज हजारों साल बाद भी हम उन दोनों को अलग-अलग करके नहीं देख पाते। ऐसा कौन सा जादू था उस रिश्ते में?

जब कृष्ण ने गोपियों के कपड़े चुराए तो यशोदा माँ ने उन्हें बहुत मारा और फिर ओखली से बांध दिया। कृष्ण भी कम न थे। मौका मिलते ही उन्होंने ओखली को खींचा और उखाड़ लिया और फौरन जंगल की ओर निकल पड़े, क्योंकि वहीं तो उनकी गायें और सभी सथी संगी थे।

अचानक जंगल में उन्हें दो महिलाओं की आवाजें सुनाईं दीं। कृष्ण ने देखा वे दो बालिकाएं थीं, जिनमें से छोटी वाली तो उनकी सखी ललिता थी और दूसरी जो उससे थोड़ी बड़ी थी, उसे वह नहीं जानते थे, लेकिन लगभग 12 साल की इस लड़की की ओर वह स्वयं ही खिंचते चले गए।

16 साल की उम्र के बाद कृष्ण राधा से कभी नहीं मिले। लेकिन सात से सोलह साल की उम्र तक, राधा के साथ गुजारे उन नौ सालों में राधा हमेशा के लिए कृष्ण का हिस्सा बन गई।

दोनों लड़कियों ने उनसे पूछा कि क्या हुआ? तुम्हें इस तरह किसने बांध दिया? यह तो बड़ी क्रूरता है! किसने किया यह सब? उन दोनों में जो 12 वर्षीय लड़की थी, उसका नाम राधे था। जिस पल राधे ने सात साल के कृष्ण को देखा, उसके बाद वे कभी उनकी आँखों से ओझल नहीं हुए। जीवन भर कृष्ण राधे की आँखों में रहे, चाहे वह शारीरिक तौर पर उनके साथ हों या न हों। हालांकि बचपन के कुछ ही साल उन दोनों ने साथ-साथ गुजारे थे, फिर भी आज हजारों साल बाद भी हम राधा और कृष्ण को अलग-अलग करके नहीं देख पाते।

राधा

16 साल की उम्र के बाद कृष्ण पूरे जीवन राधा से कभी नहीं मिले। लेकिन सात साल की उम्रसे लेकर 16 साल तक के उन नौ सालों में, जो उन्होंने राधे के साथ गुजारे, राधे उनका एक हिस्सा बन गईं। वह जीवन में बहुत सारे लोगों से मिले, बहुत सारे काम किए। उन्होंने कई विवाह भी किए, लेकिन राधे उनके जीवन में हमेशा बनी रहीं। राधा के शब्दों में, “मैं उनमें रहती हूं और वह मुझमें। इससे कोई अंतर नहीं पड़ता कि वह कहां हैं और किसके साथ रहते हैं। वह हमेशा मेरे साथ हैं। कहीं और वह रह ही नहीं सकते।“ यानी जिस पल उन दोनों ने एक दूसरे को देखा था, उसके बाद से उन्हें एक दूसरे से अलग करके नहीं देखा गया। आज करीब तीन हजार साल बाद भी आप उन्हें अलग करके नहीं देख सकते। कुछ आचारी धार्मिक लोगों ने इतिहास में कुछ जगहों पर इन दोनों को अलग करने की कोशिश की। उन्होंने राधे को अलग करने की कोशिश की, क्योंकि राधे महाभारत की बदचलन लड़की है। वह सामाजिक ताने-बाने में फिट नहीं बैठती। इसलिए वे राधे को कृष्ण से अलग करके कृष्ण को ज्यादा ईश्वरीय स्वरूप में प्रस्तुत करना चाहते थे। लेकिन तमाम कोशिशों के बावजूद वे राधा को कृष्ण के जीवन से बाहर नहीं कर सके।

कृष्ण को अपनी बांसुरी पर बड़ा गर्व था। राधे से अलग होते समय कृष्ण ने न सिर्फ अपनी बांसुरी राधे को दे दी, बल्कि उसके बाद जीवन में फिर कभी उन्होंने बांसुरी नहीं बजाई।

खैर, राधे ने कृष्ण को लकड़ी की ओखली से खोलने की कोशिश की। मगर कृष्ण उन्हें रोक दिया और कहा, ‘इसे मत खोलो। मैं चाहता हूं कि इसे मां ही खोले, जिससे उनका गुस्सा निकल सके।’ इन लड़कियों ने पूछा, ‘क्या हम तुम्हारे लिए कुछ और कर सकते हैं?’ इस पर कृष्ण ने अपनी सखी ललिता से कहा, ‘मुझे पानी चाहिए। मेरे लिए पानी ले आओ।’ दरअसल, पानी के बहाने वह उसे वहां से हटाना चाहते थे। ललिता पानी लेने चली गई और सात साल के कृष्ण और 12 साल की राधा साथ-साथ बैठ गए। इस एक मुलाकात में ही ये दोनों एक दूसरे में विलीन होकर एक हो गए और फिर उसके बाद से उन्हें कोई अलग न कर सका।
कृष्ण जब 16 साल के हुए, जिंदगी ने उनके रास्ते बदल दिए। कृष्ण को अपनी बांसुरी पर बड़ा गर्व था। उनकी बांसुरी थी ही इतनी मंत्रमुग्ध कर देने वाली। लेकिन 16 साल की उम्र में जब वह शारीरिक तौर से राधे से अलग हुए, तो उन्होंने न सिर्फ अपनी बांसुरी राधे को दे दी, बल्कि उसके बाद जीवन में फिर कभी उन्होंने बांसुरी नहीं बजाई।

Sunday 12 February 2017

भगवान राम से जब न्याय मांगने आया एक कुत्ता!


भारत में राम राज्य को सबसे न्यायपूर्ण व्यवस्था माना जाता है। राम और सीता की कहानी तो भारत में सबने सुनी है जिसमे राम सीता को रावन से बचाते हैं लंका पर आक्रमण करके। पूरी रामायन यही तो है। लेकिन वानर सेना और हनुमान जी से मिलने से पहले, यहाँ तक की अयोध्या से वनवास लेने से पहले श्री राम अपने भाई लक्ष्मण के साथ जनता को न्याय देते थे। जानें भगवान राम राज्य से जुडी एक रोचक घटना के बारे में जो राम और रावण युद्ध से पहले, राम चरित मानस से पहले की है…

राम के न्याय की अनोखी कहानी

 पुराणों में राम के बारे में एक बहुत ही सुंदर कहानी है। प्राचीन काल में इस देश के उत्तरी भाग में एक बहुत प्रसिद्ध मठ था जिसे कालिंजर के नाम से जाना जाता था। कालिंजर मठ उस समय का एक प्रसिद्ध मठ था। यह रामायण काल से पहले की बात है। रामायण का मतलब है, लगभग 5000 साल पहले। राम के आने से पहले भी कालिंजर मठ का खूब नाम था। राम को बहुत न्यायप्रिय और कल्याणकारी राजा माना जाता था। वह हर दिन दरबार में बैठकर लोगों की समस्याएं हल की कोशिश करते थे। एक दिन शाम को, जब दिन ढल रहा था, उन्हें दरबार की कार्यवाही समेटनी थी। जब वह सभी लोगों की समस्याएं सुन चुके थे, तो उन्होंने अपने भाई लक्ष्मण, जो उनके परम भक्त थे, से बाहर जाकर देखने को कहा कि कोई और तो इंतजार नहीं कर रहा। लक्ष्मण ने बाहर जाकर चारो ओर देखा और वापस आकर बोले, ‘कोई नहीं है। आज का हमारा काम अब खत्म हो गया है।’ राम बोले, ‘जाकर देखो, कोई हो सकता है।’ यह थोड़ी अजीब बात थी, लक्ष्मण अभी-अभी बाहर से देख कर आ चुके थे, मगर वह फिर से जाकर देखने के लिए कह रहे हैं। इसलिए लक्ष्मण फिर से गए और चारो ओर देखा, वहां कोई नहीं था। 

वे अंदर आने ही वाले थे, तभी उनकी नजर एक कुत्ते पर पड़ी जो बहुत उदास चेहरा लिए बैठा था और उसके सिर पर एक चोट थी। तब उन्होंने कुत्ते को देखा और उससे पूछा, ‘क्या तुम किसी चीज का इंतजार कर रहे हो?’ कुत्ता बोलने लगा, ‘हां, मैं राम से न्याय चाहता हूं।’ तो लक्ष्मण बोले, ‘तुम अंदर आ जाओ’ और वह उसे दरबार में ले गए। कुत्ते ने आकर राम को प्रणाम किया और बोलने लगा। वह बोला, ‘हे राम, मैं न्याय चाहता हूं। मेरे साथ बेवजह हिंसा की गई है। मैं चुपचाप बैठा हुआ था, सर्वथासिद्ध नाम का यह व्यक्ति आया और बिना किसी वजह के मेरे सिर पर छड़ी से वार किया। मैं तो बस चुपचाप बैठा हुआ था। मैं न्याय चाहता हूं।’ राम ने तत्काल सर्वथासिद्ध को बुलवा भेजा जो एक भिखारी था। उसे दरबार में लाया गया। राम ने पूछा, ‘तुम्हारी कहानी क्या है? यह कुत्ता कहता है कि तुमने बिना वजह उसे मारा।’ सर्वथासिद्ध बोला, ‘हां, मैं इस कुत्ते का अपराधी हूं। मैं भूख से बौखला रहा था, मैं गुस्से में था, निराश था। यह कुत्ता मेरे रास्ते में बैठा हुआ था इसलिए मैंने बेवजह निराशा और गुस्से में इस कुत्ते के सिर पर मार दिया। आप मुझे जो भी सजा देना चाहें, दे सकते हैं।’

फिर राम ने यह बात अपने मंत्रियों और दरबारियों के सामने रखी और बोले, ‘आप लोग इस भिखारी के लिए क्या सजा चाहते हैं?’ उन सब ने इस बारे में सोचकर कहा, ‘एक मिनट रुकिए, यह बहुत ही पेचीदा मामला है। पहले तो इस मामले में एक इंसान और एक कुत्ता शामिल हैं, इसलिए हम सामान्य तौर पर जिन कानूनों को जानते हैं, वे इस पर लागू नहीं होंगे। इसलिए राजा होने के नाते यह आपका अधिकार है कि आप फैसला सुनाएं।’ फिर राम ने कुत्ते से पूछा, ‘तुम क्या कहते हो, क्या तुम्हारे पास कोई सुझाव है?’ कुत्ता बोला, ‘हां, मेरे पास इस व्यक्ति के लिए एक उपयुक्त सजा है।’ ‘वह क्या, बताओ?’ तो कुत्ता बोला, ‘इसे कालिंजर मठ का मुख्य महंत बना दीजिए।’ राम ने कहा, ‘तथास्तु।’ और भिखारी को प्रसिद्ध कालिंजर मठ का मुख्य महंत बना दिया गया। राम ने उसे एक हाथी दिया, भिखारी इस सजा से बहुत प्रसन्न होते हुए हाथी पर चढ़कर खुशी-खुशी मठ चला गया।

दरबारियों ने कहा, ‘यह कैसा फैसला है? क्या यह कोई सजा है? वह आदमी तो बहुत खुश है।’ फिर राम ने कुत्ते से पूछा, ‘क्यों नहीं तुम ही इसका मतलब बताते?’ कुत्ते ने कहा, ‘पूर्वजन्म में मैं कालिंजर मठ का मुख्य महंत था और मैं वहां इसलिए गया था क्योंकि मैं अपने आध्यात्मिक कल्याण और उस मठ के लिए सच्चे दिल से समर्पित था, जिसकी बहुत से दूसरे लोगों के आध्यात्मिक कल्याण में महत्वपूर्ण भूमिका थी। मैं वहां खुद के और हर किसी के आध्यात्मिक कल्याण के संकल्प के साथ वहां गया और मैंने इसकी कोशिश भी की। मैंने अपनी पूरी कोशिश की। मगर जैसे-जैसे दिन बीते, धीरे-धीरे दूसरे छिटपुट विचारों ने मुझे प्रभावित करना शुरू कर दिया। मुख्य महंत के पद के साथ आने वाले नाम और ख्याति ने कहीं न कहीं मुझ पर असर डालना शुरू कर दिया। कई बार मैं नहीं, मेरा अहं काम करता था। कई बार मैं लोगों की सामान्य स्वीकृति का आनंद उठाने लगता था। लोगों ने मुझे एक धर्मगुरु की तरह देखना शुरू कर दिया। अपने अंदर मैं जानता था कि मैं धर्मगुरु नहीं हूं मगर मैंने किसी धर्मगुरु की तरह बर्ताव करना शुरू कर दिया और उन सुविधाओं की मांग करना शुरू कर दिया, जो आम तौर किसी धर्मगुरु को मिलनी चाहिए। मैंने अपने संपूर्ण रूपांतरण की कोशिश नहीं की मगर उसका दिखावा करना शुरू कर दिया और लोगों ने भी मेरा समर्थन किया। ऐसी चीजें होती रहीं और धीरे-धीरे अपने आध्यात्मिक कल्याण के लिए मेरी प्रतिबद्धता घटने लगी और मेरे आस-पास के लोग भी कम होने लगे। कई बार मैंने खुद को वापस लाने की कोशिश की मगर अपने आस-पास जबर्दस्त स्वीकृति को देखते हुए मैं कहीं खुद को खो बैठा। इस भिखारी सर्वथासिद्ध में गुस्सा है, अहं है, वह कुंठित भी है, इसलिए मैं जानता हूं कि वह भी खुद को वैसा ही दंड देगा, जैसा मैंने दिया था। इसलिए यह उसके लिए सबसे अच्छी सजा है, उसे कालिंजर मठ का मुख्य महंत बनने दीजिए।’

Saturday 11 February 2017

श्री कृष्ण की युद्ध नीति ।


सम्राट जरासंघ एक बहादुर योद्धा और एक प्रतिभाशाली व्यक्ति था। वह 45 सालों से अपने राज्य पर शासन कर रहा था और उसने कई लड़ाइयां जीतते हुए अपने राज्य का विस्तार किया था। मगर उसकी महत्वाकांक्षा समाप्त नहीं हुई थी। वह यह पक्का करना चाहता था कि उसके बच्चे और उनके बच्चे उस रियासत की सीमा को और आगे बढ़ाते रहें, जिसे उसने खड़ा किया था। वह पूरी निर्ममता से इस पर अमल करता था।

यदि 1947 में कृष्ण होते तो वह बिल्कुल अलग तरीके से इस मामले को सुलझाते। आज यह कोशिश करना कि कुछ लोग नहीं मारे जाएं और अगले 60 सालों तक देश को खून के आंसू रूलाना – कहीं ज्यादा बड़ी बेवकूफी है। लोग अपनी भावनाओं, सिद्धांतों और नैतिकताओं में अपना विवेक खो बैठे।

उसने अपनी दो बेटियों की शादी कंस से की क्योंकि वह उसे एक शक्तिशाली सहयोगी की तरह देखता था। उसे लगा कि ऐसा गठबंधन बनाने पर, भारत वर्ष का उत्तरी हिस्सा उसके अधीन हो जाएगा। उसे आर्य मर्यादा और धर्म का कोई ख्याल नहीं था।

जब कृष्ण ने कंस को मार डाला, तो यह सारी रणनीति बिगड़ गई। कुछ युद्ध लड़ने और कुछ और छोटे-छोटे राज्यों को मिलाने के बाद, जरासंध ने मथुरा को जीतने की योजना बनाई। मगर उस समय कृष्ण मथुरा के सभी लोगों के साथ मथुरा से कूच कर गए। गुस्से और हताशा में जरासंध ने खाली शहर में आग लगा दी। फिर वह अपने मित्र शिशुपाल की शादी रुक्मिणी से कराना चाहता था ताकि रुक्मिणी का भाई रुक्मी जो बहुत महत्वाकांक्षी युवक था और उसके पास एक शक्तिशाली सेना थी, वह उसके साथ आ जाए।

जरासंध बिहार से इतनी दूर गुजरात सिर्फ यह पक्का करने आया कि स्वयंवर में कोई गड़बड़ न हो। मगर वहां उसकी नाक के नीचे से कृष्ण रुक्मिणी को भगा कर ले गए। और जब उसने गोमांतक में कृष्ण को पकड़ने की कोशिश की तो कृष्ण ने उसे हरा दिया और उसे जीवनदान देते हुए शर्मिंदा कर दिया। जरासंध जैसे योद्धा के लिए इससे बदतर कुछ नहीं था कि एक ग्वाला उसे जीवनदान दे।  इससे बेहतर उसके लिए मर जाना था।

इसके बाद उसने अपने पौत्र की शादी द्रौपदी से करवाने की युक्ति सोची। इस तरह द्रौपदी के पिता राजा द्रुपद उसके सहयोगी बन जाते, जिनके पास एक विशाल सेना थी, और इस तरह वह भारत वर्ष के एक दूसरे इलाके पर नियंत्रण पा सकता था। बहुत कम लोग तीरंदाजी की उस बहुत मुश्किल कसौटी पर खरे उतर सकते थे, जिसे द्रुपद ने तय किया था। ये लोग थे, द्रोणाचार्य, दुर्योधन, अर्जुन, खुद जरासंध और शायद कृपाचार्य और अश्वत्थामा। मगर द्रोण और कृपाचार्य बूढ़े हो चुके थे और ब्राह्मण होने के नाते वे इसमें शामिल नहीं होते। कर्ण का वंश कुलीन नहीं था, इसलिए वह इस स्वयंवर में भाग नहीं ले सकता था, यहां जाति व्यवस्था थी।

जरासंध ने आकर उस जगह डेरा डाल दिया, जहां स्वयंवर होना था। वह जानता था कि उसका पौत्र इस तीरंदाजी के इम्तिहान में नहीं जीत सकता है, मगर वह खुद इसे जीत सकता था। कृष्ण ने हालात को ध्यान से देखा। उनका इरादा यह था कि द्रौपदी दुर्योधन से विवाह न करे। वह भी दुर्योधन से विवाह नहीं करना चाहती थी। मगर यदि दुर्योधन इस परीक्षा में उत्तीर्ण हो जाता, तो द्रौपदी को उससे विवाह करना पड़ता। दुर्योधन के लिए काम करने वाले द्रोणाचार्य द्रौपदी को भावी महारानी के रूप में नहीं देखना चाहते थे क्योंकि उन्होंने दुर्योधन की पहली पत्नी भानुमती से वादा किया था कि वह द्रौपदी को महारानी नहीं बनने देंगे।

जरासंध के शिविर में बहुत सख्त पहरा था। आधी रात का समय था, तभी दो लोग शिविर में पहुंचे, जिन्होंने अपने चेहरे ढक रखे थे। पहरेदारों ने उन्हें रोक दिया। उनमें से एक व्यक्ति बोला, ‘हम सम्राट से मिलना चाहते हैं।’ पहरेदार बोला, ‘क्या तुम्हारा दिमाग खराब हो गया है? आधी रात को तुम सम्राट से मिलना चाहते हो? ऐसा नहीं हो सकता। यहां से चले जाओ।’ वह व्यक्ति बोला, ‘अगर तुमने मुझे सम्राट से नहीं मिलने दिया, तो तुम मरोगे और तुम्हारे सम्राट को मुझसे न मिल पाने का जिंदगी भर अफसोस होगा।’ पहरेदार बोला, ‘तुम कुछ ज्यादा ही दु:साहसी लग रहे हो। वापस जाओ, सुबह आना।’ फिर उस व्यक्ति ने पूछा, ‘यहां की सुरक्षा की जिम्मेदारी किस राजकुमार के पास है? कम से कम उसे जगाओ।’ पहरेदार बोला, ‘नहीं। हम आधी रात को उन्हें नहीं जगा सकते।’ फिर यह व्यक्ति बोला, ‘अगर वह आज नहीं जगता, तो कल भी नहीं जाग पाएगा। जाकर अभी उसे उठाओ।’ फिर पहरेदारों ने जरासंध के एक पौत्र को जगाया, जिसके जिम्मे वहां की सुरक्षा थी। उसने आकर पूछा, ‘तुम कौन हो? इस व्यक्ति ने अपने चेहरे से कपड़ा हटाया और बोला, ‘मैं वासुदेव कृष्ण हूं।’ जरासंध का पौत्र हक्का-बक्का रह गया। कृष्ण तो उनका कट्टर दुश्मन था। वे उसकी तलाश में देश भर घूमे थे मगर उसे नहीं पकड़ पाए थे। और आज आधी रात को सिर्फ एक और शख्स के साथ वह उनके शिविर में आ पहुंचा था। वे चाहते थे तो अभी उसे मार सकते थे।

जरासंध के पौत्र को यकीन नहीं आ रहा था। मगर फिर उसने मुकुट और मोरपंख देखा और फिर सोचा, ‘अरे यह तो वाकई वही उपद्रवी ग्वाला है।’ फिर उसने नीला रंग देखा, ‘अरे यह तो बिल्कुल वही है।’ उसने पूछा, ‘तुम क्या चाहते हो?’ कृष्ण बोले, ‘मैं जरासंध से बात करना चाहता हूं। अगर तुम अभी उसे नहीं जगाते, तो बस एक संदेश दे दो कि मैं यहां उसका जीवन बचाने आया हूं। अगर मैं अभी उससे नहीं मिलता, तो मैं फिर कुछ नहीं कर पाउंगा। अगर फिर भी तुम उसे नहीं जगाना चाहते, तो मैं वापस चला जाता हूं। सब कुछ तुम्हारे ऊपर है।’ युवक थोड़ा परेशान हो गया, फिर बोला, ‘रुको।’ उसने जाकर जरासंध को जगाया जो उस समय एक 75 साल का बुजुर्ग था मगर अब भी काफी तंदुरुस्त और हट्टा-कट्ठा था। वह एक योद्धा था। उसे सूचना दी गई, ‘कृष्ण आपसे मिलने आए हैं।’ जरासंध को अपने कानों पर यकीन नहीं हुआ, ‘क्या? वह आधी रात को मेरे शिविर में मुझसे मिलने आया है? उसकी इतनी हिम्मत?’ उसके दिमाग में तुरंत आया, ‘क्या हम अभी उसे मार डालें?’ फिर उसके पौत्र ने उसे बताया कि कृष्ण ने उससे क्या कहा। जरासंध को वे सभी घटनाएं याद आ गईं, जब कृष्ण उस पर भारी पड़े थे। इसलिए उसने सोचा कि निश्चित रूप से कृष्ण इतने मूर्ख नहीं हैं कि यूं ही वहां मौत के मुंह में आ जाएं। जरूर कुछ और बात होगी। इसलिए वह उनसे मिलने के लिए तैयार हो गया।

कृष्ण अंदर आए तो जरासंध बोला, ‘तुम इस तरह यहां आए हो, जैसे कोई मेमना बाघ की गुफा में आने की गुस्ताखी करता है, मगर ऐसा मेमना अगले दिन का सूरज नहीं देख पाता।’ कृष्ण ने वे सारी घटनाएं गिनाईं, जब उन्होंने जरासंध को अपमानित किया था। वे बोले, ‘इतनी सारी घटनाओं के बावजूद आपको लगता है कि मैं ऐसा मेमना हूं।’ जरासंध बोला, ‘ठीक है, ठीक है, बताओ।

क्या बात करने आए हो?’ कृष्ण ने समझाया, ‘आप द्रौपदी के स्वयंवर में आए हैं। हर किसी को पता है कि द्रौपदी से विवाह का मतलब द्रुपद से संबंध बनाना है। द्रुपद से संबंध का मतलब एक विशाल सेना से संबंध है। इसी वजह से इतने सारे राजा यहां जुटे हैं। सबसे बढ़कर द्रुपद की एक नेक इंसान के रूप में बहुत इज्जत है, जिससे आपकी प्रतिष्ठा और ताकत बढ़ सकती है। इसलिए आपके यहां आने का मकसद मेरे सामने बिल्कुल साफ है। आपका पौत्र यकीनन तीरंदाजी का इम्तिहान पास नहीं कर सकता, मगर आप कर सकते हैं।’ जरासंध बोला, ‘बिल्कुल। मैं जीतूंगा।’

कृष्ण बोले, ‘कल्पना कीजिए। अगर इतने सारे पुत्रों और पौत्रों वाले 75 वर्षीय आप अगर एक 18 वर्षीय युवती के लिए इस मुकाबले में शामिल होते हैं, तो आप उपहास के पात्र बन जाएंगे। चाहे आप यह मुकाबला जीत भी लें, लेकिन अगर कोई युवक भी इस मुकाबले को जीत लेता है, तो आपको उससे लड़ना होगा। इसमें आप मारे जा सकते हैं क्योंकि जो इंसान इस मुकाबले को जीतने के काबिल होगा, वह आपको मारने में भी सक्षम हो सकता है। अगर दुर्योधन ने यह मुकाबला जीता, तो वह आसानी से आपको मार सकता है। आप दोनों एक-दूसरे की टक्कर के हैं, मगर वह युवा है और आप बूढ़े। और अगर संयोग से आप मुकाबला हार गए तो आपका साम्राज्य बर्बाद हो जाएगा। कोई राजा आगे आपके साथ जुड़ना नहीं चाहेगा। मुझे यकीन है कि आप इतने बुद्धिमान होंगे कि ऐसा कदम नहीं उठाएंगे।’ जरासंध को बात समझ में आ गई।

कृष्ण आगे कहते रहे, ‘इसलिए निश्चित रूप से आप यहां मुकाबले में भाग लेने नहीं आए हैं। आप यहां उस लड़की का अपहरण करने आए हैं। ऐसा आप सिर्फ दो जगह कर सकते हैं। एक जगह वह है, जब वह दूसरी राजकुमारियों के साथ मंदिर आएगी। दूसरी जगह – जब वह विवाह कक्ष में प्रवेश करेगी।’ उन्होंने बताया, ‘इन दोनों जगहों पर मेरे सबसे धुरंधर लोग तैनात हैं। अगर आपका रथ निर्धारित मार्ग से थोड़ा भी भटका, तो तत्काल आपका सिर धड़ से अलग हो जाएगा। चाहे जिस तरह से भी, अगर आप अपनी किसी योजना पर अमल करने की कोशिश करेंगे, तो आपकी मौत तय है। आपके लिए सबसे अच्छा यही है कि आप द्रुपद को जो भी बढ़िया उपहार दे सकते हैं, देकर पूरी इज्जत से यहां से चले जाएं।’

जरासंध दहाड़ा, ‘तुम मुझे यह बताने वाले कौन होते हो कि मुझे क्या करना चाहिए? मैं मगध का सम्राट हूं, तुम सिर्फ एक ग्वाले हो।’ कृष्ण बोले, ‘इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि आप कौन हैं और मैं कौन हूं। चाहे आप एक महान राजा हों, इस देश और संस्कृति पर मेरा असर आपसे कहीं ज्यादा है। लड़ने तथा लोगों को इकट्ठा करने की मेरी काबिलियत भी आपसे कहीं ज्यादा है। जैसा कि मैंने कहा, कल सुबह अगर आपका रथ अपने निर्धारित रास्ते से जरा सा भी इधर-उधर गया, तो आपका सिर धड़ से अलग हो जाएगा। अब यह आपके ऊपर है कि आप क्या चुनते हैं।’

जब कृष्ण वहां से जाने लगे, तो जरासंध ने पूछा, ‘अगर मैं तुम्हें यहीं मार डालूं तो?’ कृष्ण बोले, ‘मैंने सबसे शूरवीर 1000 यादव योद्धा महत्वपूर्ण जगहों पर तैनात कर दिए हैं। यही नहीं, आर्यावर्त के कानून के मुताबिक यदि कोई स्वयंवर में शामिल होने के लिए आने वाले किसी व्यक्ति को जान से मारता है, तो सभी राजा यह सुनिश्चित करते हैं कि उस हत्यारे को मृत्यु दंड मिले क्योंकि उसने मूल नियम तोड़ा है। स्वयंवर में मुकाबला तो होता है, मगर आखिरकार लड़की का फैसला ही अंतिम होता है। आर्यावर्त के सभी राजकुमार और राजा साथ मिलकर आपकी रियासत को जला डालेंगे।’ जरासंध को पता था कि यह सच है। हालांकि वह बहुत गुस्से में था, मगर उसका विवेक और बुद्धि इतनी काम कर रही थी कि वह इन बातों पर विचार कर पाता। अगली सुबह वह द्रुपद के पास गया, उन्हें बहुमूल्य उपहार दिए और शालीनतापूर्वक वहां से चला गया।

श्री कृष्ण कभी भी महाभारत जेसा भयानक युद्ध नही चाहते थे । उन्हे अच्छी तरह पता था की युद्ध किसी भी तरीके से समजदारी का निर्णय नही हो सकता ।

तो कृष्ण इस तरह के इंसान थे। उन्होंने युद्ध टालने की हर संभव कोशिश की, मगर जब इसके बावजूद युद्ध की नौबत आई, तो पीछे हटना कोई समझदारी नहीं थी। वह एक भयानक युद्ध था, जहां लगभग हर कोई मारा जाने वाला था, लेकिन यदि वे पीछे हटते, तो भी वे मारे जाते। कृष्ण ने यही समझाने की कोशिश की।

Friday 10 February 2017

महाशिवरात्रि की पौराणिक कथा ।


फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी को शिवरात्रि पर्व मनाया जाता है। माना जाता है कि सृष्टि के प्रारंभ में इसी दिन मध्यरात्रि भगवान शंकर का ब्रह्मा के शीश
 से रुद्र के रूप में अवतरण हुआ था। प्रलय की वेला में इसी दिन प्रदोष के समय भगवान शिव ब्रह्माड
 को तीसरे नेत्र की ज्वाला से समाप्त कर देते हैं। इसीलिए इसे महाशिवरात्रि अथवा कालरात्रि कहा गया। कई स्थानों पर यह भी माना जाता है कि इसी दिन भगवान शिव का विवाह हुआ था | तीनों भुवनों की अपार सुंदरी तथा शीलवती गौरां को अर्धांगिनी बनाने वाले शिव प्रेतों व पिशाचों से घिरे रहते हैं। उनका रूप बड़ा अजीब है। शरीर पर मसानों की भस्म, गले में सर्पों का हार, कंठ में विष, जटाओं में जगत-तारिणी पावन गंगा तथा माथे में प्रलयंकर ज्वाला है। बैल को वाहन के रूप में स्वीकार करने वाले शिव अमंगल रूप होने पर भी भक्तों का मंगल करते हैं और श्री-संपत्ति प्रदान करते हैं। साल में होने वाली 12 शिवरात्रियों ने से महाशिवरात्रि की सबसे महत्वपूर्ण माना जाता है।

शिकारी कथा

एक बार पार्वती जी ने भगवान शिवशंकर से पूछा, 'ऐसा कौन-सा श्रेष्ठ तथा सरल व्रत-पूजन है, जिससे
 के प्राणी आपकी कृपा सहज ही प्राप्त कर लेते हैं?' उत्तर में शिवजी ने पार्वती को 'शिवरात्रि' के व्रत का विधान बताकर यह कथा सुनाई- 'एक बार चित्रभानु नामक एक शिकारी था | पशुओं की हत्या करके वह अपने कुटुम्ब को पालता था। वह एक साहूकार का ऋणी था, लेकिन उसका ऋण समय पर न चुका सका। क्रोधित साहूकार ने शिकारी को शिवमठ में बंदी बना लिया। संयोग से उस दिन शिवरात्रि थी।'

शिकारी ध्यानमग्न होकर शिव-संबंधी धार्मिक बातें सुनता रहा। चतुर्दशी को उसने शिवरात्रि व्रत की कथा भी सुनी। संध्या होते ही साहूकार ने उसे अपने पास बुलाया और ऋण चुकाने के विषय में बात की। शिकारी अगले दिन सारा ऋण लौटा देने का वचन देकर बंधन से छूट गया। अपनी दिनचर्या की भांति वह जंगल में शिकार के लिए निकला। लेकिन दिनभर बंदी गृह में रहने के कारण भूख-प्यास से व्याकुल था। शिकार करने के लिए वह एक तालाब के किनारे बेल-वृक्ष पर पड़ाव बनाने लगा। बेल वृक्ष के नीचे शिवलिंग था जो विल्वपत्रों से ढका हुआ था। शिकारी को उसका पता न चला।

पड़ाव बनाते समय उसने जो टहनियां तोड़ीं, वे संयोग से शिवलिंग पर गिरीं। इस प्रकार दिनभर भूखे-प्यासे शिकारी का व्रत भी हो गया और शिवलिंग पर बेलपत्र भी चढ़ गए। एक पहर रात्रि बीत जाने पर एक गर्भिणी मृगी तालाब पर पानी पीने पहुंची। शिकारी ने धनुष पर तीर चढ़ाकर ज्यों ही प्रत्यंचा खींची, मृगी बोली, 'मैं गर्भिणी हूं। शीघ्र ही प्रसव करूंगी। तुम एक साथ दो जीवों की हत्या करोगे, जो ठीक नहीं है। मैं बच्चे को जन्म देकर शीघ्र ही तुम्हारे समक्ष प्रस्तुत हो जाऊंगी, तब मार लेना।' शिकारी ने प्रत्यंचा ढीली कर दी और मृगी जंगली झाड़ियों में लुप्त हो गई।

कुछ ही देर बाद एक और मृगी उधर से निकली। शिकारी की प्रसन्नता का ठिकाना न रहा। समीप आने पर उसने धनुष पर बाण चढ़ाया। तब उसे देख मृगी ने विनम्रतापूर्वक निवेदन किया, 'हे पारधी! मैं थोड़ी देर पहले ऋतु से निवृत्त हुई हूं। कामातुर विरहिणी हूं। अपने प्रिय की खोज में भटक रही हूं। मैं अपने पति से मिलकर शीघ्र ही तुम्हारे पास आ जाऊंगी।' शिकारी ने उसे भी जाने दिया। दो बार शिकार को खोकर उसका माथा ठनका। वह चिंता में पड़ गया। रात्रि का आखिरी पहर बीत रहा था। तभी एक अन्य मृगी अपने बच्चों के साथ उधर से निकली। शिकारी के लिए यह स्वर्णिम अवसर था। उसने धनुष पर तीर चढ़ाने में देर नहीं लगाई। वह तीर छोड़ने ही वाला था कि मृगी बोली, 'हे पारधी!' मैं इन बच्चों को इनके पिता के हवाले करके लौट आऊंगी। इस समय मुझे मत मारो।

शिकारी हंसा और बोला, सामने आए शिकार को छोड़ दूं, मैं ऐसा मूर्ख नहीं। इससे पहले मैं दो बार अपना शिकार खो चुका हूं। मेरे बच्चे भूख-प्यास से तड़प रहे होंगे। उत्तर में मृगी ने फिर कहा, जैसे तुम्हें अपने बच्चों की ममता सता रही है, ठीक वैसे ही मुझे भी। इसलिए सिर्फ बच्चों के नाम पर मैं थोड़ी देर के लिए जीवनदान मांग रही हूं। हे पारधी! मेरा विश्वास कर, मैं इन्हें इनके पिता के पास छोड़कर तुरंत लौटने की प्रतिज्ञा करती हूं।

मृगी का दीन स्वर सुनकर शिकारी को उस पर दया आ गई। उसने उस मृगी को भी जाने दिया। शिकार के अभाव में बेल-वृक्ष पर बैठा शिकारी बेलपत्र तोड़-तोड़कर नीचे फेंकता जा रहा था। पौ फटने को हुई तो एक हृष्ट-पुष्ट मृग उसी रास्ते पर आया। शिकारी ने सोच लिया कि इसका शिकार वह अवश्य करेगा। शिकारी की तनी प्रत्यंचा देखकर मृग विनीत स्वर में बोला, हे पारधी भाई! यदि तुमने मुझसे पूर्व आने वाली तीन मृगियों तथा छोटे-छोटे बच्चों को मार डाला है, तो मुझे भी मारने में विलंब न करो, ताकि मुझे उनके वियोग में एक क्षण भी दुःख न सहना पड़े। मैं उन मृगियों का पति हूं। यदि तुमने उन्हें जीवनदान दिया है तो मुझे भी कुछ क्षण का जीवन देने की कृपा करो। मैं उनसे मिलकर तुम्हारे समक्ष उपस्थित हो जाऊंगा।


मृग की बात सुनते ही शिकारी के सामने पूरी रात का घटनाचक्र घूम गया, उसने सारी कथा मृग को सुना दी। तब मृग ने कहा, 'मेरी तीनों पत्नियां जिस प्रकार प्रतिज्ञाबद्ध होकर गई हैं, मेरी मृत्यु से अपने धर्म का पालन नहीं कर पाएंगी। अतः जैसे तुमने उन्हें विश्वासपात्र मानकर छोड़ा है, वैसे ही मुझे भी जाने दो। मैं उन सबके साथ तुम्हारे सामने शीघ्र ही उपस्थित होता हूं।' उपवास, रात्रि-जागरण तथा शिवलिंग पर बेलपत्र चढ़ने से शिकारी का हिंसक हृदय निर्मल हो गया था। उसमें भगवद् शक्ति का वास हो गया था। धनुष तथा बाण उसके हाथ से सहज ही छूट गया। भगवान शिव की अनुकंपा से उसका हिंसक हृदय कारुणिक भावों से भर गया। वह अपने अतीत के कर्मों को याद करके पश्चाताप की ज्वाला में जलने लगा।


थोड़ी ही देर बाद वह मृग सपरिवार शिकारी के समक्ष उपस्थित हो गया, ताकि वह उनका शिकार कर सके, किंतु जंगली पशुओं की ऐसी सत्यता, सात्विकता एवं सामूहिक प्रेमभावना देखकर शिकारी को बड़ी ग्लानि हुई। उसके नेत्रों से आंसुओं की झड़ी लग गई। उस मृग परिवार को न मारकर शिकारी ने अपने कठोर हृदय को जीव हिंसा से हटा सदा के लिए कोमल एवं दयालु बना लिया। देवलोक से समस्त देव समाज भी इस घटना को देख रहे थे। घटना की परिणति होते ही देवी-देवताओं ने पुष्प-वर्षा की। तब शिकारी तथा मृग परिवार मोक्ष को प्राप्त हुए'।

Thursday 9 February 2017

क्यु धुतराष्ट थे जन्म से अंधे ?


महाराज शांतनु और सत्यवती के दो पुत्र हुए विचित्रवीर्य और चित्रांगद। चित्रांगद कम आयु में ही युद्ध में मारे गए। इसके बाद भीष्म ने विचित्रवीर्य का विवाह काशी की राजकुमारी अंबिका और अंबालिका से करवाया। विवाह के कुछ समय बाद ही विचित्रवीर्य की भी बीमारी के कारण मृत्यु हो गई। अंबिका और अंबालिका संतानहीन ही थीं तो सत्यवती के सामने यह संकट उत्पन्न हो गया कि कौरव वंश आगे कैसे बढ़ेगा।

वंश को आगे बढ़ाने के लिए सत्यवती ने महर्षि वेदव्यास से उपाय पूछा। तब वेदव्यास से अपनी दिव्य शक्तियों से अंबिका और अंबालिका से संतानें उत्पन्न की थीं। अंबिका ने महर्षि के भय के कारण आंखें बद कर ली थी तो इसकी अंधी संतान के रूप में धृतराष्ट्र हुए। दूसरी राजकुमारी अंबालिका भी महर्षि से डर गई थी और उसका शरीर पीला पड़ गया था तो इसकी संतान पाण्डु हुई। पाण्डु जन्म से ही कमजोर थे। दोनों राजकुमारियों के बाद एक दासी पर भी महर्षि वेदव्यास ने शक्तिपात किया था। उस दासी से संतान के रूप में महात्मा विदुर उत्पन्न हुए।

लेकिन धुतराष्ट को हंमेशा यही लगता था की अंध होने की वजह से उनसे पहले पांडु को राज मिला ।

अंधे होने के कारण धृतराष्ट्र से पहले पाण्डु बने थे राजा
धृतराष्ट्र, पाण्डु और विदुर के पालन-पोषण का भार भीष्म के ऊपर था। तीनों पुत्र बड़े हुए तो उन्हें विद्या अर्जित करने भेजा गया। धृतराष्ट्र बल विद्या में श्रेष्ठ हुए, पाण्डु धनुर्विद्या में और विदुर धर्म और नीति में पारंगत हो गए। तीनों पुत्र युवा हुए तो बड़े पुत्र धृतराष्ट्र को नहीं, बल्कि पाण्डु को राजा बनाया गया, क्योंकि धृतराष्ट्र अंधे थे और विदुर दासी पुत्र थे। पाण्डु की मृत्यु के बाद धृतराष्ट्र को राजा बनाया गया। धृतराष्ट्र नहीं चाहते थे कि उनके बाद युधिष्ठिर राजा बने, बल्कि वे चाहते थे कि उनका पुत्र दुर्योधन राजा बने। इसी कारण वे लगातार पाण्डव पुत्रों की उपेक्षा करते रहे।



Wednesday 8 February 2017

श्री कृष्ण ने क्यों किया कर्ण का अंतिम संस्कार अपने ही हाथों पर ?



जब कर्ण मृत्युशैया पर थे तब कृष्ण उनके पास उनके दानवीर होने की परीक्षा लेने के लिए आए। कर्ण ने कृष्ण को कहा कि उसके पास देने के लिए कुछ भी नहीं है। ऐसे में कृष्ण ने उनसे उनका सोने का दांत मांग लिया।

कर्ण ने अपने समीप पड़े पत्थर को उठाया और उससे अपना दांत तोड़कर कृष्ण को दे दिया। कर्ण ने एक बार फिर अपने दानवीर होने का प्रमाण दिया जिससे कृष्ण काफी प्रभावित हुए। कृष्ण ने कर्ण से कहा कि वह उनसे कोई भी वरदान मांग़ सकते हैं।

कर्ण ने कृष्ण से कहा कि एक निर्धन सूत पुत्र होने की वजह से उनके साथ बहुत छल हुए हैं। अगली बार जब कृष्ण धरती पर आएं तो वह पिछड़े वर्ग के लोगों के जीवन को सुधारने के लिए प्रयत्न करें। इसके साथ कर्ण ने दो और वरदान मांगे।

दूसरे वरदान के रूप में कर्ण ने यह मांगा कि अगले जन्म में कृष्ण उन्हीं के राज्य में जन्म लें और तीसरे वरदान में उन्होंने कृष्ण से कहा कि उनका अंतिम संस्कार ऐसे स्थान पर होना चाहिए जहां कोई पाप ना हो।

पूरी पृथ्वी पर ऐसा कोई स्थान नहीं होने के कारण कृष्ण ने कर्ण का अंतिम संस्कार अपने ही हाथों पर किया। इस तरह दानवीर कर्ण मृत्यु के पश्चात साक्षात वैकुण्ठ धाम को प्राप्त हुए।


  • कर्ण ही कौरवों में से एक मात्र ऐसा योद्धा था जो अर्जुन को हरा सकता था । इसी वजह से कर्ण को कपट नीति से वध किया जाता हे । कर्ण को दानवीर कर्ण भी कहा जाता हे। वे अपने इस स्वभाव के लिये आज भी जाने जाते हे ।

Tuesday 7 February 2017

क्यु नही चुना था द्रौपदी ने कर्ण को अपना पति ?

                                                                                                                                                                   
'नहीं देखा था किसी ने बचपन उसका ,पांच पति हुए भी जिसे मिल न पाई सुरक्षा ,जीवन भर तरसी एक बूंद प्रेम को। '
 इन विशेषताओ को पढ़कर कोई भी कल्पना कर सकता हे की हम महाभारत की सबसे चर्चित पात्र द्रौपदी की बात कर रहे हे। द्रौपदी के बारे में कहा जाता हे की उनका जन्म प्राकृतिक रूप से नहीं बल्कि राजा द्रुपद ने एक यज्ञ करके द्रौपदी और अपने पुत्र दृष्ट्ध्रूम को प्राप्त किया था। द्रुपद ने कई वर्षो तक अपनी पुत्री द्रौपदी को स्वीकार नही किया था।

क्या आप जानते हे की पांच पतियो से विवाह करने के बाद पांचाली बनी द्रौपदी को अर्जुन से नहीं बल्कि महारथी और दानवीर माने जाने वाले कर्ण से प्रेम था। लेकिन अपने पिता द्रुपद के भीष्म से प्रतिशोध लेने की प्रतिज्ञा और मान सन्मान के कारण द्रौपदी और कर्ण कभी एक दूसरे को अपने मन की बात नहीं कर सके।

जब द्रौपदी के स्वयंवर के लिए राजा द्रुपद ने द्रौपदी के कक्ष में दासी द्वारा महान राजाओ के चित्र भिजवाए थे,तो उनमे कर्ण का चित्र भी था क्योंकि दुर्योधन का मित्र होने के कारण सभी कर्ण का सनमान करने के साथ उन्हें राजश्री परिवार के वंश की तरह मानते थे।

जब पांसो के खेल में पांडव अपना सबकुछ हारते हुए द्रौपदी को दाव पे लगा चुके थे ,इस दौरान सभी खेल के नियम का बाहाना बनाकर मौन थे जबकि द्रौपदी को सभा में मौजूद कर्ण से सहायता की उम्मीद थी।

कर्ण द्रोपदी को पसंद करता था और उसे अपनी पत्नी बनाना चाहता था साथ ही द्रौपदी भी कर्ण से बहुत प्रभावित थी और उसकी तस्वीर देखते ही यह निर्णय कर चुकी थी कि वह स्वयंवर में उसी के गले में वरमाला डालेगी। लेकिन फिर भी उसने ऐसा नहीं किया।

द्रोपदी और कर्ण, दोनों एक-दूसरे से विवाह करना चाहते थे लेकिन सूतपुत्र होने की वजह से यह विवाह नहीं हो पाया। नियति ने इन दोनों का विवाह नहीं होने दिया, जिसके परिणामस्वरूप कर्ण, पांडवों से नफरत करने लगा।

द्रोपदी ने कर्ण के विवाह प्रस्ताव को ठुकरा दिया क्योंकि उसे अपने परिवार के सम्मान को बचाना था। क्या आप जानते है द्रौपदी के विवाह प्रस्ताव को ठुकरा देने के बाद कर्ण ने दो विवाह किए थे। इसके बारे में फ़िर कभी विस्तार पूर्वक चर्चा करेंगे ।

Monday 6 February 2017

क्या अश्वत्थामा आज भी जीवित हे ?


मध्यप्रदेश का एक छोटा शहर है बुरहानपुर। यह खंडवा से लगभग 80 किलोमीटर पर स्थित है. यहाँ पहाड़ी की उचाईयों पर है - असीरगढ़ का किला.

इस किले को तो अस अहीर नाम के हिन्दू शासक ने बनवाया था लेकिन बाद में धोखे से नासिर खान ने इसको हड़प लिया।

इस किले के चारों तरफ जंगल और इस किले के आस पर कोई रिहाइशी मकान या बस्ती नहीं है. वैसे तो यहाँ कोई आता-जाता नहीं लेकिन कभी कोई आया तो उसको कुछ ऐसे अनुभव हुए जिससे या तो वह पागल हो गया या फिर उसको लकवा मार गया. स्थानीय लोगों में यहाँ अश्वस्थामा के होने की भ्रांति है. कभी कोई हल्दी मांगने आया तो कभी किसी ने मक्खन. लेकिन उस व्यक्ति का हुलिया वही रहता है और उसके माथे से खून निकलता रहता है.

महाभारत की कथा यदि आपको थोड़ी कम याद हो तो आइये अश्वस्थामा के बारे में थोड़ा जान लें. अश्वस्थामा द्रोणाचार्य के पुत्र थे. वही द्रोणाचार्य जो कौरव और पांडवों के गुरु थे. महाभारत का युद्ध जब चला तो द्रोणाचार्य को कौरव के तरफ से युद्ध करना पड़ा. जब अश्वस्थामा को द्रोणाचार्य की मृत्यु की खबर मिली तो उनसे ब्रह्मास्त्र चला कर पड़ावों के सभी पुत्रों को मार गिराया. सिर्फ अभिमन्यु का पुत्र परीक्षित बचा था जो उत्तरा के गर्भ में पल रहा था. जब अश्वस्थामा उसे भी मारने के लिए ब्रह्मास्त्र निकाला तब श्री कृष्ण ने उसके मस्तक से मणि निकाल ली और उसको शाप दिया कि वह इसी मृत्युलोक में रहेगा और भटकता रहेगा. यह वही सिर का घाव है जो 5000 साल में भी नहीं भरा और आज भी जिसमें से खून निकलता रहता है.

असीरगढ़ के किले के पास एक शिवमंदिर है. इस शिवमंदिर के पास एक द्वार है जो खंडवा के वन की तरफ खुलता है. खंडवा आपको याद नहीं हो तो इसे मैं खाण्डव वन बोल देता हूँ. अब याद आया यह वही खाण्डव वन है जिसको अर्जुन को अग्निदेव ने वरदान स्वरुप यह वन, गांडीव धनुष और अक्षय तरकश दी थी. इस वन का महाभारत काल से बहुत महत्व है और इसलिए आज तक इसी वन से आकर इस शिवमंदिर में कोई फूल और गुलाल चढ़ा जाता है. इस मंदिर में कोई पूजा हो, ये फूल कौन चढ़ा जाता है इस मंदिर के पास एक नदी है - उतावली नदी. कहते हैं की अश्वस्थामा इसी नदी से नहाकर फूल चढाने आते है.

खैर जो भी है अश्वस्थामा अमर हैं या नहीं यह तो कह पाना मुश्किल है लेकिन कोई माने या न माने, कुछ तो अदृश्य शक्ति जरूर है यहाँ और कई अन्वेषकों ने यहाँ उसे महसूस भी किया है. आस-पास के लोगों की अनुभूतियाँ भी हैं और कुछ मान्यताएं भी हैं. लेकिन यह एक अनसुलझा रहस्य है.

हमारे पुराणों में ऐसे और भी कई व्यक्ति हे जो कई सालों से प्रुथ्वी पर जिंदा हे । जो हमारे बिच ही शायद किसी तरह से रहते हो । लेकिन उनके बारे में कुछ बता पा ना मुश्किल हे L इसके बारे में फ़िर कभी चर्चा करेंगे ।

Sunday 5 February 2017

किस के श्राप की वजह से ब्रह्माजी की पूजा नही होती ?




हिन्दुओं में तीन प्रधान देव माने जाते है- ब्रह्मा, विष्णु और महेश। ब्रह्मा इस संसार के रचनाकार है, विष्णु पालनहार है और महेश संहारक है। लेकिन हमारे देश में जहाँ विष्णु और महेश के अनगिनत मंदिर है वही खुद की पत्नी सावित्री के श्राप के चलते ब्रह्मा जी का पुरे भारत में एक मात्र मंदिर है जो की राजस्थान के प्रशिद्ध तीर्थ पुष्कर में स्तिथ है। आखिर क्यों दिया सावित्री ने अपने पति ब्रह्मा को ऐसा श्राप इसका वर्णन पद्म पुराण में मिलता है।

पत्नी सावित्री ने ब्रह्मा जी को क्यों दिया था श्राप
हिन्दू धर्मग्रन्थ पद्म पुराण के मुताबिक एक समयधरती पर वज्रनाश नामक राक्षस ने उत्पात मचा रखा था। उसके बढ़ते अत्याचारों से तंग आकर ब्रह्मा जी ने उसका वध किया। लेकिन वध करते वक़्त उनके हाथों से तीन जगहों पर कमल का पुष्प गिरा, इन तीनों जगहों पर तीन झीलें बनी। इसी घटना के बाद इस स्थान का नाम पुष्कर पड़ा। इस घटना के बाद ब्रह्मा ने संसार की भलाई के लिए यहाँ एक यज्ञ करने का फैसला किया।

ब्रह्मा जी यज्ञ करने हेतु पुष्कर पहुँच गए लेकिन किसी कारणवश सावित्री जी समय पर नहीं पहुँच सकी। यज्ञ को पूर्ण करने के लिए उनके साथ उनकी पत्नी का होना जरूरी था, लेकिन सावित्री जी के नहीं पहुँचने की वजह से उन्होंने गुर्जर समुदाय की एक कन्या 'गायत्री' से विवाह कर इस यज्ञ शुरू किया। उसी दौरान देवी सावित्री वहां पहुंची और ब्रह्मा के बगल में दूसरी कन्या को बैठा देख क्रोधित हो गईं।

उन्होंने ब्रह्मा जी को श्राप दिया कि देवता होने के बावजूद कभी भी उनकी पूजा नहीं होगी। सावित्री के इस रुप को देखकर सभी देवता लोग डर गए। उन्होंने उनसे विनती की कि अपना शाप वापस ले लीजिए। लेकिन उन्होंने नहीं लिया। जब गुस्सा ठंडा हुआ तो सावित्री ने कहा कि इस धरती पर सिर्फ पुष्कर में आपकी पूजा होगी। कोई भी दूसरा आपका मंदिर बनाएगा तो उसका विनाश हो जाएगा। भगवान विष्णु ने भी इस काम में ब्रह्मा जी की मदद की थी। इसलिए देवी सरस्वती ने विष्णु जी को भी श्राप दिया था कि उन्हें पत्नी से विरह का कष्ट सहन करना पड़ेगा। इसी कारण राम (भगवान विष्णु का मानव अवतार) को जन्म लेना पड़ा और 14 साल के वनवास के दौरान उन्हें पत्नी से अलग रहना पड़ा था।

ब्रह्मा जी के मंदिर का निर्माण कब हुआ व किसने किया इसका कोई उल्लेख नहीं है। लेकिन ऐसा कहते है की आज से तकरीबन एक हजार दो सौ साल पहले अरण्व वंश के एक शासक को एक स्वप्न आया था कि इस जगह पर एक मंदिर है जिसके सही रख रखाव की जरूरत है। तब राजा ने इस मंदिर के पुराने ढांचे को दोबारा जीवित किया।

पुष्कर में सावित्री का भी मंदिर है लेकिन वो ब्रह्मा जीके पास न होकर ब्रह्मा जी के मंदिर के पीछे एक पहाड़ी पर स्तिथ है जहाँ तक पहुंचने के लिए सैकड़ों सीढ़ियां चढ़नी पड़ती है।


भगवान ब्रह्मा ने पुष्कर में कार्तिक पूर्णिमा के दिन यज्ञ किया था। यही कारण है कि हर साल अक्टूबर-नवंबर के बीच पड़ने वाले कार्तिक पूर्णिमा के अवसर पर पुष्कर मेला लगता है। मेला के दौरान ब्रह्मा जी के मंदिर में हजारों की संख्या में भक्त पहुंचते हैं। इन दिनों में भगवान ब्रह्मा की पूजा करने से विशेष लाभ मिलता है।

Saturday 4 February 2017

क्यों काटा था काल भैरव ने ब्रह्मा जी का पांचवा शीश ?



शिव की क्रोधाग्नि का विग्रह रूप कहे जाने वाले कालभैरव का अवतरण मार्गशीर्ष कृष्णपक्ष की अष्टमी को हुआ। इनकी पूजा से घर में नकारत्मक ऊर्जा, जादू-टोने, भूत-प्रेत आदि का भय नहीं रहता।  काल भैरव के प्राकट्य की निम्न कथा स्कंदपुराण के काशी- खंड के 31वें अध्याय में है।

कथा काल भैरव की

कथा के अनुसार एक बार देवताओं ने ब्रह्मा और विष्णु जी से बारी-बारी से पूछा कि जगत में सबसे श्रेष्ठ कौन है तो स्वाभाविक ही उन्होंने अपने को श्रेष्ठ बताया। देवताओं ने वेदशास्त्रों से पूछा तो उत्तर आया कि जिनके भीतर चराचर जगत, भूत, भविष्य और वर्तमान समाया हुआ है, अनादि अंनत और अविनाशी तो भगवान रूद्र ही हैं।

वेद शास्त्रों से शिव के बारे में यह सब सुनकर ब्रह्मा ने अपने पांचवें मुख से शिव के बारे में भला-बुरा कहा। इससे वेद दुखी हुए। इसी समय एक दिव्यज्योति के रूप में भगवान रूद्र प्रकट हुए। ब्रह्मा ने कहा कि हे रूद्र, तुम मेरे ही सिर से पैदा हुए हो।

अधिक रुदन करने के कारण मैंने ही तुम्हारा नाम 'रूद्र' रखा है अतः तुम मेरी सेवा में आ जाओ, ब्रह्मा के इस आचरण पर शिव को भयानक क्रोध आया और उन्होंने भैरव को उत्पन्न करके कहा कि तुम ब्रह्मा पर शासन करो।

उन दिव्य शक्ति संपन्न भैरव ने अपने बाएं हाथ की सबसे छोटी अंगुली के नाख़ून से शिव के प्रति अपमान जनक शब्द कहने वाले ब्रह्मा के पांचवे सर को ही काट दिया। शिव के कहने पर भैरव काशी प्रस्थान किये जहां ब्रह्म हत्या से मुक्ति मिली। रूद्र ने इन्हें काशी का कोतवाल नियुक्त किया।

आज भी ये काशी के कोतवाल के रूप में पूजे जाते हैं। इनका दर्शन किये वगैर विश्वनाथ का दर्शन अधूरा रहता है।

Friday 3 February 2017

भीम को कैसे मार डालना चाहते थे धृतराष्ट्र ?



भीम ने धृतराष्ट्र के प्रिय पुत्र दुर्योधन और दु:शासन को बड़ी निर्दयता से मार डाला था, इस कारण धृतराष्ट्र भीम को भी मार डालना चाहते थे। जब युद्ध समाप्त हो गया तो श्रीकृष्ण के साथ युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव महाराज धृतराष्ट्र से मिलने पहुंचे। युधिष्ठिर ने धृतराष्ट्र को प्रणाम किया और सभी पांडवों ने अपने-अपने नाम लिए, प्रणाम किया। श्रीकृष्ण महाराज के मन की बात पहले से ही समझ गए थे कि वे भीम का नाश करना चाहते हैं। धृतराष्ट्र ने भीम को गले लगाने की इच्छा जताई तो श्रीकृष्ण ने तुरंत ही भीम के स्थान पर भीम की लोहे की मूर्ति आगे बढ़ा दी। धृतराष्ट्र बहुत शक्तिशाली थे, उन्होंने क्रोध में आकर लोहे से बनी भीम की मूर्ति को दोनों हाथों से दबोच लिया और मूर्ति को तोड़ डाला।

मूर्ति तोड़ने की वजह से उनके मुंह से भी खून निकलने लगा और वे जमीन पर गिर गए। कुछ ही देर में उनका क्रोध शांत हुआ तो उन्हें लगा की भीम मर गया है तो वे रोने लगे। तब श्रीकृष्ण ने महाराज से कहा कि भीम जीवित है, आपने जिसे तोड़ा है, वह तो भीम के आकार की मूर्ति थी। इस प्रकार श्रीकृष्ण ने भीम के प्राण बचा लिए।

Thursday 2 February 2017

कैसे हुई थी श्री राम की मुर्त्यु ?



जिस तरह दुनिया में आने वाला हर इंसान अपने जन्म से पहले ही अपनी मृत्यु की तारीख यम लोक में निश्चित करके आता है। उसी तरह इंसान रूप में जन्म लेने वाले भगवान के अवतारों का भी इस धरती पर एक निश्चित समय था, वो समय समाप्त होने के बाद उन्हें भी मृत्यु का वरण करके अपने लोक वापस लौटना पड़ा था।

हम अब तक आप सब को भगवान श्रीकृष्ण और भगवान लक्ष्मण की मृत्यु या यूँ कहे की उनके स्वलोक गमन की कहानी बता चुके है। आज हम जानेंगे की भगवान श्री राम कैसे इस लोक को छोड़कर वापस विष्णुलोक गए। भगवान श्री राम के मृत्यु वरण में सबसे बड़ी बाधा उनके प्रिय भक्त हनुमान थे। क्योंकि हनुमान के होते हुए यम की इतनी हिम्मत नहीं थी की वो राम के पास पहुँच चुके।  पर स्वयं श्री राम से इसका हल निकाला।  आइये जानते है कैसे श्री राम ने इस समस्या का हल निकाला।

एक दिन, राम जान गए कि उनकी मृत्यु का समय हो गया था। वह जानते थे कि जो जन्म लेता है उसे मरना पड़ता है। “यम को मुझ तक आने दो। मेरे लिए वैकुंठ, मेरे स्वर्गिक धाम जाने का समय आ गया है”, उन्होंने कहा। लेकिन मृत्यु के देवता यम अयोध्या में घुसने से डरते थे क्योंकि उनको राम के परम भक्त और उनके महल के मुख्य प्रहरी हनुमान से भय लगता था।

यम के प्रवेश के लिए हनुमान को हटाना जरुरी था। इसलिए राम ने अपनी अंगूठी को महल के फर्श के एक छेद में से गिरा दिया और हनुमान से इसे खोजकर लाने के लिए कहा। हनुमान ने स्वंय का स्वरुप छोटा करते हुए बिलकुल भंवरे जैसा आकार बना लिया और केवल उस अंगूठी को ढूढंने के लिए छेद में प्रवेश कर गए, वह छेद केवल छेद नहीं था बल्कि एक सुरंग का रास्ता था जो सांपों के नगर नाग लोक तक जाता था। हनुमान नागों के राजा वासुकी से मिले और अपने आने का कारण बताया।

वासुकी हनुमान को नाग लोक के मध्य में ले गए जहां अंगूठियों का पहाड़ जैसा ढेर लगा हुआ था! “यहां आपको राम की अंगूठी अवश्य ही मिल जाएगी” वासुकी ने कहा। हनुमान सोच में पड़ गए कि वो कैसे उसे ढूंढ पाएंगे क्योंकि ये तो भूसे में सुई ढूंढने जैसा था। लेकिन सौभाग्य से, जो पहली अंगूठी उन्होंने उठाई वो राम की अंगूठी थी। आश्चर्यजनक रुप से, दूसरी भी अंगूठी जो उन्होंने उठाई वो भी राम की ही अंगूठी थी। वास्तव में वो सारी अंगूठी जो उस ढेर में थीं, सब एक ही जैसी थी। “इसका क्या मतलब है?” वह सोच में पड़ गए।

वासुकी मुस्कुराए और बाले, “जिस संसार में हम रहते है, वो सृष्टि व विनाश के चक्र से गुजरती है। इस संसार के प्रत्येक सृष्टि चक्र को एक कल्प कहा जाता है। हर कल्प के चार युग या चार भाग होते हैं। दूसरे भाग या त्रेता युग में, राम अयोध्या में जन्म लेते हैं। एक वानर इस अंगूठी का पीछा करता है और पृथ्वी पर राम मृत्यु को प्राप्त होते हैं। इसलिए यह सैकड़ो हजारों कल्पों से चली आ रही अंगूठियों का ढेर है। सभी अंगूठियां वास्तविक हैं। अंगूठियां गिरती रहीं और इनका ढेर बड़ा होता रहा। भविष्य के रामों की अंगूठियों के लिए भी यहां काफी जगह है”।

हनुमान जान गए कि उनका नाग लोक में प्रवेश और अंगूठियों के पर्वत से साक्षात, कोई आकस्मिक घटना नहीं थी। यह राम का उनको समझाने का मार्ग था कि मृत्यु को आने से रोका नहीं जा सकेगा। राम मृत्यु को प्राप्त होंगे। संसार समाप्त होगा। लेकिन हमेशा की तरह, संसार पुनः बनता है और राम भी पुनः जन्म लेंगे।

Wednesday 1 February 2017

कैसे हुआ हनुमान जी का जन्म ?



यूं तो भगवान हनुमान जी को अनेक नामों से पुकारा जाता है, जिसमें से उनका एक नाम वायु पुत्र भी है। जिसका शास्त्रों में सबसे ज्यादा उल्लेख मिलता है। शास्त्रों में इन्हें वातात्मज कहा गया है अर्थात् वायु से उत्पन्न होने वाला।कैसे हुआ हनुमान जी का जन्म

पुराणों की कथानुसार हनुमान की माता अंजना संतान सुख से वंचित थी। कई जतन करने के बाद भी उन्हें निराशा ही हाथ लगी। इस दुःख से पीड़ित अंजना मतंग ऋषि के पास गईं, तब मंतग ऋषि ने उनसे कहा-पप्पा सरोवर के पूर्व में एक नरसिंहा आश्रम है, उसकी दक्षिण दिशा में नारायण पर्वत पर स्वामी तीर्थ है वहां जाकर उसमें स्नान करके, बारह वर्ष तक तप एवं उपवास करना पड़ेगा तब जाकर तुम्हें पुत्र सुख की प्राप्ति होगी।

अंजना ने मतंग ऋषि एवं अपने पति केसरी से आज्ञा लेकर तप किया था बारह वर्ष तक केवल वायु का ही भक्षण किया तब वायु देवता ने अंजना की तपस्या से खुश होकर उसे वरदान दिया जिसके परिणामस्वरूप चैत्र शुक्ल की पूर्णिमा को अंजना को पुत्र की प्राप्ति हुई। वायु के द्वारा उत्पन्न इस पुत्र को ऋषियों ने वायु पुत्र नाम दिया।