Sunday 12 February 2017

भगवान राम से जब न्याय मांगने आया एक कुत्ता!


भारत में राम राज्य को सबसे न्यायपूर्ण व्यवस्था माना जाता है। राम और सीता की कहानी तो भारत में सबने सुनी है जिसमे राम सीता को रावन से बचाते हैं लंका पर आक्रमण करके। पूरी रामायन यही तो है। लेकिन वानर सेना और हनुमान जी से मिलने से पहले, यहाँ तक की अयोध्या से वनवास लेने से पहले श्री राम अपने भाई लक्ष्मण के साथ जनता को न्याय देते थे। जानें भगवान राम राज्य से जुडी एक रोचक घटना के बारे में जो राम और रावण युद्ध से पहले, राम चरित मानस से पहले की है…

राम के न्याय की अनोखी कहानी

 पुराणों में राम के बारे में एक बहुत ही सुंदर कहानी है। प्राचीन काल में इस देश के उत्तरी भाग में एक बहुत प्रसिद्ध मठ था जिसे कालिंजर के नाम से जाना जाता था। कालिंजर मठ उस समय का एक प्रसिद्ध मठ था। यह रामायण काल से पहले की बात है। रामायण का मतलब है, लगभग 5000 साल पहले। राम के आने से पहले भी कालिंजर मठ का खूब नाम था। राम को बहुत न्यायप्रिय और कल्याणकारी राजा माना जाता था। वह हर दिन दरबार में बैठकर लोगों की समस्याएं हल की कोशिश करते थे। एक दिन शाम को, जब दिन ढल रहा था, उन्हें दरबार की कार्यवाही समेटनी थी। जब वह सभी लोगों की समस्याएं सुन चुके थे, तो उन्होंने अपने भाई लक्ष्मण, जो उनके परम भक्त थे, से बाहर जाकर देखने को कहा कि कोई और तो इंतजार नहीं कर रहा। लक्ष्मण ने बाहर जाकर चारो ओर देखा और वापस आकर बोले, ‘कोई नहीं है। आज का हमारा काम अब खत्म हो गया है।’ राम बोले, ‘जाकर देखो, कोई हो सकता है।’ यह थोड़ी अजीब बात थी, लक्ष्मण अभी-अभी बाहर से देख कर आ चुके थे, मगर वह फिर से जाकर देखने के लिए कह रहे हैं। इसलिए लक्ष्मण फिर से गए और चारो ओर देखा, वहां कोई नहीं था। 

वे अंदर आने ही वाले थे, तभी उनकी नजर एक कुत्ते पर पड़ी जो बहुत उदास चेहरा लिए बैठा था और उसके सिर पर एक चोट थी। तब उन्होंने कुत्ते को देखा और उससे पूछा, ‘क्या तुम किसी चीज का इंतजार कर रहे हो?’ कुत्ता बोलने लगा, ‘हां, मैं राम से न्याय चाहता हूं।’ तो लक्ष्मण बोले, ‘तुम अंदर आ जाओ’ और वह उसे दरबार में ले गए। कुत्ते ने आकर राम को प्रणाम किया और बोलने लगा। वह बोला, ‘हे राम, मैं न्याय चाहता हूं। मेरे साथ बेवजह हिंसा की गई है। मैं चुपचाप बैठा हुआ था, सर्वथासिद्ध नाम का यह व्यक्ति आया और बिना किसी वजह के मेरे सिर पर छड़ी से वार किया। मैं तो बस चुपचाप बैठा हुआ था। मैं न्याय चाहता हूं।’ राम ने तत्काल सर्वथासिद्ध को बुलवा भेजा जो एक भिखारी था। उसे दरबार में लाया गया। राम ने पूछा, ‘तुम्हारी कहानी क्या है? यह कुत्ता कहता है कि तुमने बिना वजह उसे मारा।’ सर्वथासिद्ध बोला, ‘हां, मैं इस कुत्ते का अपराधी हूं। मैं भूख से बौखला रहा था, मैं गुस्से में था, निराश था। यह कुत्ता मेरे रास्ते में बैठा हुआ था इसलिए मैंने बेवजह निराशा और गुस्से में इस कुत्ते के सिर पर मार दिया। आप मुझे जो भी सजा देना चाहें, दे सकते हैं।’

फिर राम ने यह बात अपने मंत्रियों और दरबारियों के सामने रखी और बोले, ‘आप लोग इस भिखारी के लिए क्या सजा चाहते हैं?’ उन सब ने इस बारे में सोचकर कहा, ‘एक मिनट रुकिए, यह बहुत ही पेचीदा मामला है। पहले तो इस मामले में एक इंसान और एक कुत्ता शामिल हैं, इसलिए हम सामान्य तौर पर जिन कानूनों को जानते हैं, वे इस पर लागू नहीं होंगे। इसलिए राजा होने के नाते यह आपका अधिकार है कि आप फैसला सुनाएं।’ फिर राम ने कुत्ते से पूछा, ‘तुम क्या कहते हो, क्या तुम्हारे पास कोई सुझाव है?’ कुत्ता बोला, ‘हां, मेरे पास इस व्यक्ति के लिए एक उपयुक्त सजा है।’ ‘वह क्या, बताओ?’ तो कुत्ता बोला, ‘इसे कालिंजर मठ का मुख्य महंत बना दीजिए।’ राम ने कहा, ‘तथास्तु।’ और भिखारी को प्रसिद्ध कालिंजर मठ का मुख्य महंत बना दिया गया। राम ने उसे एक हाथी दिया, भिखारी इस सजा से बहुत प्रसन्न होते हुए हाथी पर चढ़कर खुशी-खुशी मठ चला गया।

दरबारियों ने कहा, ‘यह कैसा फैसला है? क्या यह कोई सजा है? वह आदमी तो बहुत खुश है।’ फिर राम ने कुत्ते से पूछा, ‘क्यों नहीं तुम ही इसका मतलब बताते?’ कुत्ते ने कहा, ‘पूर्वजन्म में मैं कालिंजर मठ का मुख्य महंत था और मैं वहां इसलिए गया था क्योंकि मैं अपने आध्यात्मिक कल्याण और उस मठ के लिए सच्चे दिल से समर्पित था, जिसकी बहुत से दूसरे लोगों के आध्यात्मिक कल्याण में महत्वपूर्ण भूमिका थी। मैं वहां खुद के और हर किसी के आध्यात्मिक कल्याण के संकल्प के साथ वहां गया और मैंने इसकी कोशिश भी की। मैंने अपनी पूरी कोशिश की। मगर जैसे-जैसे दिन बीते, धीरे-धीरे दूसरे छिटपुट विचारों ने मुझे प्रभावित करना शुरू कर दिया। मुख्य महंत के पद के साथ आने वाले नाम और ख्याति ने कहीं न कहीं मुझ पर असर डालना शुरू कर दिया। कई बार मैं नहीं, मेरा अहं काम करता था। कई बार मैं लोगों की सामान्य स्वीकृति का आनंद उठाने लगता था। लोगों ने मुझे एक धर्मगुरु की तरह देखना शुरू कर दिया। अपने अंदर मैं जानता था कि मैं धर्मगुरु नहीं हूं मगर मैंने किसी धर्मगुरु की तरह बर्ताव करना शुरू कर दिया और उन सुविधाओं की मांग करना शुरू कर दिया, जो आम तौर किसी धर्मगुरु को मिलनी चाहिए। मैंने अपने संपूर्ण रूपांतरण की कोशिश नहीं की मगर उसका दिखावा करना शुरू कर दिया और लोगों ने भी मेरा समर्थन किया। ऐसी चीजें होती रहीं और धीरे-धीरे अपने आध्यात्मिक कल्याण के लिए मेरी प्रतिबद्धता घटने लगी और मेरे आस-पास के लोग भी कम होने लगे। कई बार मैंने खुद को वापस लाने की कोशिश की मगर अपने आस-पास जबर्दस्त स्वीकृति को देखते हुए मैं कहीं खुद को खो बैठा। इस भिखारी सर्वथासिद्ध में गुस्सा है, अहं है, वह कुंठित भी है, इसलिए मैं जानता हूं कि वह भी खुद को वैसा ही दंड देगा, जैसा मैंने दिया था। इसलिए यह उसके लिए सबसे अच्छी सजा है, उसे कालिंजर मठ का मुख्य महंत बनने दीजिए।’

1 comment:

  1. बहुत सुंदर कथा है जो सत्य की गहनता दर्शाती है। अक्सर जिसे पाकर ख़ुश होते हैं वही हमारी दुर्गति का कारण हो सकता है। ऐसा ही कुछ देवदत्त भीष्म के साथ हुआ थी। जिस इच्छामृत्यु को जग वरदान मानता वह वास्तव में पूर्व जन्म का श्राप था जिसने उसे बाणशय्या तक पहुँचाया।

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