Thursday 16 February 2017

कर्ण के जन्म की कथा ।



इधर महल में कौरवों और पांडवों के बीच मनमुटाव आक्रामक रूप लेता जा रहा था, उधर काल एक नया अध्याय लिख रहा था। पांडवों की माता का एक और पुत्र था। कौन था वह और क्यों नहीं था वह अपने भाइयों के साथ?

कुंती ने मन्त्र की शक्ति से सूर्य पुत्र को जन्म दिया

बचपन में कुंती ने एक बार दुर्वासा ऋषि का बहुत अच्छे तरीके से अतिथि सत्कार किया था। इससे प्रसन्न होकर, दुर्वासा ने कुंती को एक मन्त्र दिया, जिसके द्वारा वो किसी भी देवता को बुला सकती थी। एक दिन कुंती के मन में उस मन्त्र को आजमाने का खयाल आया। वह बाहर निकली तो देखा कि सूर्य अपनी पूरी भव्यता में चमक रहे थे। उनकी भव्यता देखकर वह बोल पड़ी – ‘में चाहती हूं, कि सूर्य देव आ जाएं।’

सूर्य देव आए और कुंती गर्भवती हो गयी, और एक बालक का जन्म हुआ। वो सिर्फ चौदह साल की अविवाहित स्त्री थी। उसे समझ नहीं आया कि ऐसे में सामाजिक स्थितियों से कैसे निपटा जाएगा। उसने बच्चे को एक लकड़ी के डिब्बे में रख दिया, और बिना उस बच्चे के भविष्य के बारे में सोचे, उसे नदी में बहा दिया। उसे ऐसा करने में थोड़ी हिचकिचाहट हुई, पर वो कोई भी कार्य पक्के उद्देश्य से करती थी। एक बार वो अगर मन में ठान लेतीं, तो वो कुछ भी कर सकती थी। उसका हृदय करुणा-शून्य था।

अधिरथ को मिला नन्हा कर्ण

धृतराष्ट्र के महल में कम करने वाला सारथी, अधिरथ, उस समय नदी के किनारे पर ही मौजूद था। उसकी नजर इस सुंदर डिब्बे पर पड़ी तो उसने उसको खोलकर देखा। एक नन्हें से बच्चे को देख कर वो आनंदित हो उठा, क्योंकि उसकी कोई संतान नहीं थी। उसे लगा कि ये बच्चा भगवान की ओर से एक भेंट है। वो इस डिब्बे और बच्चे को अपनी पत्नी राधा के पास ले गया। दोनों आनंद विभोर हो गए। उस डिब्बे की सुंदरता को देखकर वे समझ गए कि ये बच्चा किसी साधारण परिवार का नहीं हो सकता।

एक महान धनुर्धर बनने की इच्छा के साथ कर्ण द्रोण के पास गया। पर द्रोण ने उसे स्वीकार नहीं किया, और उसे सूतपुत्र कहकर पुकारा। सूतपुत्र का अर्थ होता है एक सारथी का पुत्र। ऐसा करके द्रोण ने इस ओर इशारा किया कि वो नीची जाती का है। इस अपमान से कर्ण को बहुत ठेस पहुँची।

राजा या फिर रानी ने इस बच्चे को छोड़ दिया है। वे ये तो नहीं जानते थे कि किसने इस बच्चे को ऐसे छोड़ दिया है, पर उसे पाकर वे बहुत खुश थे। क्योंकि इस बच्चे के कारण वे जीवन में पूर्णता महसूस कर रहे थे।उस बच्चे को बाद में कर्ण नाम से जाना गया। वह एक अद्वितीय मनुष्य था। जन्म से ही उसके कानों में सोने के कुंडल और उसके छाती पर एक प्राकृतिक कवच था। वह अद्भुत दिखता था। राधा ने बहुत प्रेम से उसका पालन-पोषण किया। अधिरथ खुद एक सारथी था, इसलिए वह कर्ण को भी रथ चलाना सिखाना चाहता था। पर कर्ण तो धनुर्विद्या सीखने के लिए बेचैन था। उन दिनों, सिर्फ क्षत्रियों को शस्त्रों और युद्ध कला की शिक्षा ग्रहण करने का अधिकार था। ये राजा की ताकत को सुरक्षित रखने का एक सरल तरीका था। क्योंकि अगर हर कोई शस्त्रों का इस्तेमाल करना सीख जाता, तो फिर सभी शस्त्रों का इस्तेमाल करने लगते। कर्ण क्षत्रिय नहीं था, इसलिए उसे किसी भी शिक्षक ने स्वीकार नहीं किया।

कर्ण को अस्वीकार किया द्रोण नें

एक महान धनुर्धर बनने की इच्छा के साथ कर्ण द्रोण के पास गया। पर द्रोण ने उसे स्वीकार नहीं किया, और उसे सूतपुत्र कहकर पुकारा। सूतपुत्र का अर्थ होता है एक सारथी का पुत्र। ऐसा करके द्रोण ने इस ओर इशारा किया कि वो नीची जाती का है। इस अपमान से कर्ण को बहुत ठेस पहुँची। भेदभाव और अपमान का बारबार सामना करने की वजह से एक सीधा-सच्चा इंसान एक अधम इंसान में बदल गया। जब भी कोई उसे सूतपुत्र कहता, तो उसकी अधमता इतनी ऊँची उठ जाती, जितनी कि उसकी प्रकृति में नहीं था। द्रोण द्वारा क्षत्रिय न होने के कारण अस्वीकार किये जाने पर, कर्ण ने परशुराम के पास जाने का फैसला किया। परशुराम युद्ध कलाओं के सबसे महान शिक्षक थे।

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