Sunday 19 February 2017

परशुराम ने दिया कर्ण को श्राप ।


पिछले भाग में आपने पढ़ा कि कर्ण जन्म से क्षत्रिय था, पर उसका पालन पोषण एक रथ चालक के घर हुआ था। वो महान धनुर्धर बनना चाहता था, और वो गुरु द्रोण के पास गया। पर द्रोण ने उसे अस्वीकार कर दिया। इसके बाद उसने महान शिक्षक परशुराम के पास जाने का फैसला किया। जानते हैं आगे क्या हुआ…

कर्ण ने धारण की ब्राह्मणों की वेश भूषा

महाभारत काल में, युद्ध कला में सिर्फ मल्ल-युद्ध ही नहीं होता था, बल्कि सभी तरह के शस्त्रों को चलाना भी सिखाया जाता था। इसमें ख़ास रूप से तीरंदाजी पर जोर दिया जाता था। कर्ण जानता था कि परशुराम सिर्फ ब्राह्मणों को अपने शिष्य के रूप में स्वीकार करेंगे। सीखने की चाहत में उसने एक नकली जनेऊ धारण किया और एक ब्राह्मण के रूप में परशुराम के पास चला गया।

परशुराम ने उसे अपना शिष्य बना लिया, और वो सब कुछ सिखा दिया जो वे जानते थे। कर्ण बहुत जल्दी सीख गया। किसी भी अन्य शिष्य में उस तरह का स्वाभाविक गुण और क्षमता नहीं थी। परशुराम उससे बहुत खुश हुए।

उन दिनों, परशुराम काफी बूढ़े हो चुके थे। एक दिन जंगल में अभ्यास करते समय, परशुराम बहुत थक गए। उन्होंने कर्ण से कहा वे लेटना चाहते हैं। कर्ण बैठ गया ताकि परशुराम कर्ण की गोद में अपना सिर रख पाएं। फिर परशुराम सो गये। तभी एक खून चूसने वाला कीड़ा कर्ण की जांघ में घुस गया और उसका खून पीने लगा। उसे भयंकर कष्ट हो रहा था, और उसके जांघ से रक्त की धार बहने लगी। वह अपने गुरु की नींद को तोड़े बिना उस कीड़े को हटा नहीं सकता था। लेकिन अपने गुरु की नींद को तोड़ना नहीं चाहता था। धीरे-धीरे रक्त की धार परशुराम के शरीर तक पहुंची और इससे उनकी नींद खुल गई। परशुराम ने आंखें खोल कर देखा कि आस पास बहुत खून था।

परशुराम को पता चली कर्ण की असलियत

परशुराम बोले – ‘ये किसका खून है?’ कर्ण ने बताया – ‘यह मेरा खून है।’ फिर परशुराम ने कर्ण की जांघ पर खुला घाव देखा। खून पीने वाला कीड़ा कर्ण की मांसपेशी में गहरा प्रवेश कर चुका था। फिर भी वह बिना हिले डुले वहीँ बैठा था।

परशुराम ने उस की ओर देखकर बोले – ‘तुम ब्राह्मण नहीं हो सकते। अगर तुम ब्राह्मण होते तो एक मच्छर के काटने पर भी तुम चिल्लाने लगते।

कर्ण बोला – ‘हां, मैं ब्राह्मण नहीं हूं। कृपया मुझ पर क्रोधित न हों।’

इतना दर्द केवल शत्रीय ही सह सकता हे ।
परशुराम अत्यधिक क्रोध से भर गए। वे बोले – ‘ तुमको क्या लगता है, तुम एक झूठा जनेऊ पहनकर यहां आ सकते हो और मुझे धोखा देकर सारी विद्या सीख सकते हो? मैं तुम्हें श्राप देता हूं।’

कर्ण बोला – ‘हां मैं एक ब्राह्मण नहीं हूं। पर मैं क्षत्रिय भी नहीं हूं। मैं सूतपुत्र हूं, मैंने बस आधा झूठ बोला था।’

परशुराम ने दिया कर्ण को श्राप

पशुराम ने उसकी बात नहीं सुनी। उस स्थिति को देखते ही वे सत्य जान गए – कि कर्ण एक क्षत्रिय है।

वे बोले – ‘तुमने मुझे धोखा दिया है।

जो कुछ मैंने सिखाया है तुम उसका आनंद ले सकते हो, पर जब तुम्हें इसकी सचमुच जरूरत होगी, तब तुम सभी मंत्र भूल जाओगे जिनकी तुम्हें जरूरत होगी, और वही तुम्हारा अंत होगा।’

कर्ण उनके पैरों में गिरकर दया की भीख मांगने लगा। वह बोला – ‘कृपया ऐसा मत कीजिए। मैं आपको धोखा देने की नीयत से नहीं आया था। बस मैं सीखने के लिए बैचैन था, और कोई भी सिखाने के लिए तैयार नहीं था। सिर्फ आप ही अकेले ऐसे इंसान हैं, जो किसी ऐसे को सिखाने के लिए तैयार हों, जो कि क्षत्रिय न हो।’

बस यश प्राप्ति ही थी कर्ण की चाहत

परशुराम का गुस्सा ठंडा हो गया। वे बोले – ‘लेकिन फिर भी, तुमने झूठ बोला। तुम्हें अपनी स्थिति मुझे बतानी चाहिए थी। तुमको मुझसे बात करनी चाहिए थी। पर तुम्हें कभी झूठ नहीं बोलना चाहिए था। मैं श्राप वापस नहीं ले सकता। पर मैं देख सकता हूं कि तुम्हारी महत्वाकांक्षा राजपाट पाने या शक्तिशाली होने की नहीं है।

तुम सिर्फ यश चाहते हो, और तुम्हें यश मिलेगा। लोग हमेशा तुम्हें एक यशस्वी योद्धा की तरह याद करेंगे। पर तुम्हारे पास कभी शक्ति या साम्राज्य नहीं होगा, और तुम कभी महानतम धनुर्धर के रूप में भी नहीं जाने जाओगे। पर तुम्हारा यश हमेशा बना रहेगा, जो कि तुम्हारी चाहत भी है।’

इस श्राप को लेकर, कर्ण भटकता रहा। वह शिक्षा पाकर खुश था। खुद के सामर्थ्य को लेकर भी बहुत खुश था। पर वह इसे कहीं प्रदर्शित नहीं कर सकता था। क्योंकि सिर्फ क्षत्रिय ही युद्ध या प्रतियोगिता में भाग ले सकते थे। वह आंखें बंद करके किसी भी चीज़ पर निशाना लगा सकता था, पर अपने कौशल को प्रदर्शित नहीं कर सकता था। उसे बस यश की चाहत थी, और उसे यश प्राप्त नहीं हो रहा था।

कर्ण पहुंचा ओडिशा के कोणार्क मंदिर के पास

उदास होकर वो दक्षिण पूर्व की तरफ चला गया और समुद्र के किनारे जा कर बैठ गया। वर्तमान समय के उड़ीसा राज्य में कोणार्क के पास उस स्थान पर बैठ गया, जहां सूर्य देव की कृपा सबसे अच्छे से पाई जा सकती है। शायद कर्ण की याद में ही, कोणार्क का सूर्य मंदिर बनाया गया। वह तपस्या करने लगा और कई दिनों तक ध्यान में बैठा रहा।

खाने के लिए कुछ नहीं था, पर वह बैठ कर ध्यान करता रहा। जब उसे बहुत भूख लगी, तो उसने कुछ केकड़े पकड़कर खा लिए। इससे उसे पोषण तो मिला, पर उसकी भूख और बढ़ गई।

कुछ हफ्ते साधना करने के बाद, उसकी भूख बहुत ज्यादा बढ़ गयी। इस स्थिति में उसने, झाड़ियों में एक जानवर देखा। उसे लगा कि वह एक हिरन होगा, उसने अपना तीर और धनुष निकाला और आंखें बंद करके तीर चला दिया। उसे तीर के निशाने पर लगने की आवाज़ सुनाई दी। वह मांस से अपनी भूख को शांत करने की कल्पना करने लगा। पर झाड़ियों में जाने के बाद उसे पता चला कि वह तो एक गाय थी। वह भयभीत हो उठा। आर्य गोहत्या को सबसे बुरा कर्म मानते थे। डरते हुए, उसने गाय की ओर देखा, और गाय ने उसकी ओर – कोमल नेत्रों से देखा, और फिर हमेशा के लिए अपनी आंखें बंद कर लीं। वह व्याकुल हो उठा। उसे समझ नहीं आ रहा था, कि क्या करे। तभी, एक ब्राह्मण आया, और मृत गाय को देखकर विलाप करने लगा।

कर्ण को मिला एक और श्राप

ब्राह्मण बोला – ‘तुमने मेरी गाय को मार डाला। मैं तुम्हें श्राप दूंगा। तुम एक योद्धा लगते हो, इसलिए मैं तुम्हें श्राप देता हूं कि रण भूमि में जब तुम बहुत मुश्किल स्थिति में होगे, तब तुम्हारा रथ इतना गहरा धंस जाएगा कि तुम उसे बाहर नहीं निकाल पाओगे। और तुम तब मारे जाओगे जब तुम असहाय होगे, ठीक वैसे जैसे तुमने इस असहाय गाय को मार डाला।’

मुझे पता नहीं था कि वह एक गाय है। अगर आप चाहें तो मैं आपको सौ गाएं इसके बदले में दे सकता हूं।’

ब्राह्मण बोला – ‘ये गाय मेरे लिए बस एक जानवर नहीं थी। ये मुझे सबसे अधिक प्रिय थी। मेरी मृत गाय के बदले दूसरी गाएं देने के इस प्रस्ताव के लिए मैं तुम्हें और भी ज्यादा श्राप देता हूं।’

दोहरे श्राप के साथ, कर्ण आगे बढ़ा। उसे पता नहीं था कि उसे कहां जाना चाहिए। वह धुल के एक कण पर भी अपने बाणों से निशाना साध सकता था। पर इसका फायदा क्या था? वह क्षत्रिय नहीं था – कोई भी उसे प्रतियोगिता में शामिल होने नहीं देता, युद्ध में शामिल होने देने की तो बात ही नहीं थी। वह बिना किसी लक्ष्य के यहां से वहां भटकता रहा।

Saturday 18 February 2017

भगवान बुद्ध ने क्या भेंट किया अपने पुत्र को ।



भगवान बुद्ध ने आठ सालों तक एक भिक्षुक का जीवन जिया, जिसकी शुरुआत उन्होंने अपने महल से भाग कर की थी। लेकिन बुद्धत्व मिलने के बाद एक दिन वे अपने महल पहुंचे…

शायद ही दुनिया में ऐसा कोई इंसान होगा जिसने गौतम का नाम न सुना हो। ज्यादातर लोग उन्हें बुद्ध के नाम से जानते हैं। इस धरती पर कई बार आध्यात्म की एक बड़ी लहर सी आई है। बुद्ध खुद ऐसी ही एक आध्यात्मिक लहर रहे हैं। संभवत: वह धरती के सबसे कामयाब आध्यात्मिक गुरु थे – उनके जीवन काल में ही उनके साथ चालीस हजार बौद्ध भिक्षु थे और भिक्षुओं की यह सेना जगह-जगह जाकर आध्यात्मिक लहर पैदा करती थी।

उन दिनों उन इलाकों में आध्यात्मिक प्रक्रिया सिर्फ संस्कृत में ही सिखाई जाती थी, और संस्कृत भाषा की सुविधा एक खास वर्ग को ही उपलब्ध थी। दूसरों के लिए यह भाषा सीखना वर्जित था, क्योंकि इस भाषा को ईश्वर के पास पहुंचने का जरिया माना जाता था। हर किसी की पहुंच वहां तक नहीं थी। बुद्ध ने पालि भाषा में अपनी शिक्षा रखी जो उस समय की बोलचाल की भाषा थी। इस तरह उन्होंने हर तरह के लोगों के लिए आध्यात्मिकता के दरवाजे खोल दिया। और फि र आध्यात्मिकता ने एक विशाल लहर का रूप ले लिया।

एक रात वह अपनी पत्नी- अपनी युवा पत्नी और नवजात शिशु को छोडक़र आधी रात को घर से निकल पड़े। वो एक राजा की तरह नहीं निकले, बल्कि एक चोर की तरह निकले थे- रात में घर छोडक़र गए थे। यह कोई आसान फैसला नहीं था। वह एक ऐसी पत्नी से दूर नहीं जा रहे थे, जिसे झेलना उनके लिए मुश्किल हो रहा हो। वह ऐसी स्त्री से दूर जा रहे थे, जिससे वह बहुत प्यार करते थे। वह नवजात बेटे से दूर जा रहे थे, जो उन्हें बहुत प्यारा था। वह अपनी शादी की कड़वाहट की वजह से नहीं भाग रहे थे। वह हर उस चीज से भाग रहे थे, जो उन्हें प्रिय थी। वह महल के ऐशो-आराम से, एक राज्य के राजकुमार होने से, भविष्य में राजा बनने की संभावना से, वह उन सभी चीजों से भाग रहे थे, जिन्हें हर आदमी आम तौर पर पाना चाहता है। लेकिन वे अपनी जिम्मेदारियों से भागने वाले कोई कायर नहीं थे। यह एक इंसान के साहस और ज्ञान की तड़प का परिणाम था। उन्होंने अपना महल, अपनी पत्नी, अपना बच्चा, अपना सब कुछ त्याग दिया और ऐसी चीज की खोज में लग गए, जो अज्ञात थी।

गौतम एक राजा थे, मगर उन्होंने एक भिक्षुक का जीवन जिया। आज आप इस घटना का गुणगान कर सकते हैं क्योंकि वह मशहूर हो चुके हैं। मगर मैं चाहता हूं कि आप समझें कि जब वह एक भिक्षुक की तरह चल पड़े थे, तो सडक़ पर चलते आम लोगों ने बाकी भिक्षुकों की तरह ही उन्हें भी दुत्कारा था। उन्हें उन सभी चीजों से गुजरना पड़ा जो किसी भिक्षुक को अपने जीवन में झेलना पड़ता है। जबकि वह एक राजकुमार थे और उन्होंने जानबूझकर भिक्षुक बनने का फैसला किया था।

आठ सालों की खोज के बाद, जब उन्हें पूर्ण ज्ञान प्राप्त हुआ तो उन्हें अपना एक छोटा सा दायित्व याद आया जो उन्हें पूरा करना था। जब उन्होंने महल छोड़ा था, तो उनका पुत्र एक शिशु ही था। उनकी पत्नी एक युवती थी। वह रात को चोरों की तरह, बिना किसी को बताए वहां से चले आए थे। उनके पास उस हालात का सामना करने का साहस नहीं था या वह जानते थे कि इस पूरे हालात का सामना करने की कोशिश बेकार है, उसका वैसे भी कोई हल नहीं था। इसलिए वह रात के अंधेरे में चुपचाप घर छोडक़र चले गए। आठ साल बाद जब उन्हें पूर्ण ज्ञान प्राप्त हो गया, वह बुद्ध हो गए… जब पुराने गौतम का कोई अस्तित्व नहीं बचा था, तो वह वापस आए, क्योंकि वह अपने इस छोटे से दायित्व को पूरा करना चाहते थे। वह अपनी पत्नी यशोधरा से मिलने आए, जो बहुत स्वाभिमानी स्त्री थीं।

यशोधरा को जैसे ही पता चला कि वह आने वाले हैं, वह गुस्से से पागल हो गईं। वह उन्हें किसी तरह बख्शना नहीं चाहती थीं। वह गुस्से से उबल पड़ीं और बोलीं, ‘आप एक चोर की तरह घर छोडक़र गए, आप तो एक मर्द भी नहीं हैं। आपके दिव्यता की खोज का सवाल कहां उठता है? आप एक शाही परिवार में जन्मे थे, आपके अंदर इतना साहस होना चाहिए था कि मेरा सामना करते और मुझसे लड़ते फि र अपनी मनमर्जी करते।

आप तो एक चोर की तरह भाग गए और अब वापस आकर दावा कर रहे हैं कि आपको ज्ञान प्राप्त हो गया है, आप बुद्ध हैं। मुझे इस तरह के फ र्जी ज्ञान में कोई दिलचस्पी नहीं है।’ उन्होंने यशोधरा से कहा, ‘देखो, जिस आदमी को तुम जानती थी, उसका अब अस्तित्व नहीं है। मैं सिर्फ इस दायित्व के कारण यहां आया हूं, जिसे मैं पूरा करना चाहता हूं। मैं तुम्हारा पति नहीं हूं, न ही इस बच्चे का पिता। मेरा सब कुछ बदल चुका है। हां, मैं अब भी उसी शारीरिक रूप में हूं, मगर मेरे अंदर सब कुछ बदल चुका है।’

फिर जैसा कि इमोशनल ड्रामा के समय होता है… यशोधरा ने बच्चे को उनके सामने रखा, बच्चा लगभग आठ साल का था। उन्होंने बच्चे को बुद्ध के सामने रखते हुए कहा, ‘इसके लिए आपकी क्या विरासत है? आप और आपकी आध्यात्मिक बकवास! आप इसे क्या देकर जाएंगे? इस बच्चे के लिए आपकी धरोहर क्या है?’ उन्होंने लडक़े को देखा, फिर अपने शिष्य आनंद को बुलाया, जो वहीं मौजूद था। वह बोले, ‘आनंद, मेरा भिक्षा पात्र लाओ।’ आनंद गौतम का भिक्षा पात्र ले कर आए, जो कुछ खास नहीं एक मामूली सा कटोरा था। गौतम बोले, ‘मेरी विरासत यही है, यह सबसे बड़ी विरासत है जो मैं अपने बेटे को सौंप सकता हूं।’ और उन्होंने वह भिक्षा पात्र अपने बेटे को सौंप दिया।

भगवान बुद्ध की ज्ञान की खोज तब शुरू हुई जब उन्होंने एक ही दिन तीन दृश्य दिखे – एक रोगी मनुष्य, एक वृद्ध और एक शव को उन्होंने देखा। बस इतना देखना था कि राजकुमार सिद्धार्थ गौतम निकल पड़े ज्ञान और बोध की खोज में…

Friday 17 February 2017

पांडव बच निकले लाक्षागृह से और भीम के विवाह की कथा ।




 शकुनि ने पांडवों से छुटकारा पाने के लिए एक चाल सोची। कौरवों ने पांडवों के लिए काशी में एक महल बनवाया जो बेहद ज्वलनशील पदार्थ से बना था। धृतराष्ट्र ने सुझाव दिया कि पांडवों को आध्यात्मिक खोज के लिए वहां जाना चाहिए। पांचों भाई अपनी मां कुंती के साथ उस महल में रहने गए। विदुर ने एक गुप्त चेतावनी भेजी और एक आदमी भेजा जिसने उस महल से सुरक्षित बच निकलने के लिए एक सुरंग बनाई।

पांडवों की जगह एक निषाद स्त्री और उसके पांच पुत्र जल गए

अब आगे : कुंती ने एक निषाद स्त्री से मित्रता कर ली, जिसके पांच बेटे थे। वह अक्सर उन्हें महल में आमंत्रित करती, खूब खिलाती-पिलाती और उनकी देख-भाल करती।

एक दुर्भाग्यपूर्ण रात को उसने मेहमानों यानी निषाद स्त्री और उसके पांच बेटों के पेय में कुछ मिला दिया। मेहमानों के नींद में चले जाने के बाद पांडव और उनकी मां सुरंग से बच निकले और महल में आग लगा दी। गुप्तचर, आदिवासी स्त्री और उसके पांच बेटे आग में जलकर मर गए। विदुर ने पांडवों के बच निकलने में मदद करने के लिए कुछ लोग भेज दिए थे। महाभारत में इस घटना के बारे में एक अविश्वसनीय वर्णन है, जिसमें कहा गया है, ‘वे एक नाव में चढ़े, जहां एक सहायक पर्दे में उनका इंतजार कर रहा था। भीम ने नाव खेने के लिए चप्पू खोजे, मगर वहां कोई चप्पू नहीं था। सहायक ने कुछ लीवर चलाए और नाव धीरे-धीरे आवाज करते हुए धारा के प्रतिकूल बढ़ने लगी।’ वे हैरान थे। उन्हें पता नहीं चल रहा था कि यह सब हकीकत में हो रहा है या वे मर चुके हैं।

विदुर के सहायकों ने पांडवों को जंगल तक पहुंचा दिया

बिना किसी पतवार के, आवाज करते हुए, धारा की उल्टी दिशा में चलने वाली नाव का वर्णन किसी मोटरबोट की तरह लगता है।

हम नहीं जानते कि यह कल्पना है या वाकई उनके पास एक मोटरबोट थी, उन्होंने कहीं से उसे मंगाया था या किसी के पास इतनी दूरदृष्टि थी कि वे पांच हजार साल बाद होने वाले मोटरबोट के आविष्कार की कल्पना कर सकते थे। जो भी हो, वे धारा की विपरीत दिशा में गए और फिर घने जंगल के अंदर चले गए। जब महल जल गया और वे गुप्त रूप से बच निकले, तो सारा शहर आकर पांडवों की कथित मृत्यु पर विलाप करने लगा। हस्तिनापुर में धृतराष्ट्र ने भी शोकमग्न होने का दिखावा किया। दुर्योधन ने तीन दिन तक खाना नहीं खाने का ढोंग किया।

हर कोई मातम मनाने लगा और प्रार्थना सभाएं आयोजित की गईं। पांडवों और कुंती ने उस आग को एक दुर्घटना की तरह दिखाने के लिए हर संभव कोशिश की थी। कौरव और उनके मित्र नहीं जानते थे कि उनके दुश्मन अब भी जीवित हैं। निषाद स्त्री और उसके बेटों के शव मिलने से ऐसा लगा कि पांडव और कुंती की मृत्यु हो गई है। जब सुरंग खोदने वाले कंकन ने निषाद स्त्री और उसके पांच बेटों के शव देखे, तो उसने सोचा कि कुंती और उसके पुत्र क्या कभी इस अपराध से दोषमुक्त हो पाएंगे। कुंती का भावहीन आकलन यह था कि अगर कौरवों को शव न मिले, तो उन्हें पता चल जाएगा कि पांडव बच निकले हैं और वे उन्हें ढूंढ निकालेंगे। इसलिए छह शव वहां मिलना जरूरी था और उसे इस बात का कोई पछतावा नहीं था।

भीम ने एक राक्षस का काम तमाम किया

उन्होंने अपने सभी निशान मिटा दिए और जंगल में चले गए। वहां बहुत सी घटनाएं हुईं।

एक महत्वपूर्ण घटना यह हुई कि एक राक्षस जो आदमखोर था, ने पांचों भाइयों और उनकी मां को देखकर उन्हें खाना चाहा। मगर इसकी बजाय एक भयंकर लड़ाई में भीम ने उसे मार डाला। उस राक्षस की एक बहन थी जिसका नाम था हिडिंबा। हिडिंबा भीम के प्रेम में पड़ गई। वह एक जंगली प्राणी थी। भीम ने उसे थोड़ी सभ्यता सिखाई, उसके बाल छोटे किए, हाथ-पांव के बाल साफ किए और उसे आकर्षक रूप दिया। वह उससे प्रेम करने लगा और उससे विवाह करना चाहता था। वह उसे पाना चाहता था मगर उसे थोड़ा अपराधबोध हो रहा था क्योंकि उसका बड़ा भाई अब तक अविवाहित था।

भीम के पुत्र घटोत्कछ का जन्म

युधिष्ठिर ने उसे इस अपराधबोध से मुक्त किया। उसने कहा, ‘हां, परंपरा तो है कि बड़े भाई की शादी पहले होनी चाहिए मगर दिल किसी परंपरा को नहीं मानता और हम उसके आगे सिर झुकाते हैं।

तुम हिडिंबा से विवाह कर सकते हो।’ किसी और को हिडिंबा से कोई मतलब नहीं था। वह एक साल तक भीम के साथ रही और उसके बच्चे को जन्म दिया। बच्चे के सिर पर जन्म से ही बाल नहीं थे और उसका सिर एक घड़े की तरह था। उसका नाम घटोत्कच रखा गया, जिसका मतलब है, घड़े की तरह सिर वाला और बिना बाल वाला। उसका शरीर बहुत विशाल था। बाद में वह युद्ध में बहुत उपयोगी साबित हुआ क्योंकि वह बहुत बलशाली योद्धा बन गया था। कुंती ने देखा कि भीम बहुत घरेलू बनता जा रहा है। वह जानती थी कि अगर वह अपनी पत्नी के साथ ही रहा, तो कभी न कभी सभी भाई अलग-अलग हो जाएंगे। अगर भाई अलग-अलग हो गए, तो उन्हें राज्य कभी नहीं मिल सकता था। इसलिए उसने एक फरमान सुनाया – ‘तुम इस राक्षस स्त्री के साथ अब और नहीं रह सकते, क्योंकि यह आर्य नहीं है।’ फिर वह भीम और उसके चार भाइयों को लेकर वन से एक छोटे से नगर में रहने चली गई, जिसका नाम था एकचक्र।

Thursday 16 February 2017

कर्ण के जन्म की कथा ।



इधर महल में कौरवों और पांडवों के बीच मनमुटाव आक्रामक रूप लेता जा रहा था, उधर काल एक नया अध्याय लिख रहा था। पांडवों की माता का एक और पुत्र था। कौन था वह और क्यों नहीं था वह अपने भाइयों के साथ?

कुंती ने मन्त्र की शक्ति से सूर्य पुत्र को जन्म दिया

बचपन में कुंती ने एक बार दुर्वासा ऋषि का बहुत अच्छे तरीके से अतिथि सत्कार किया था। इससे प्रसन्न होकर, दुर्वासा ने कुंती को एक मन्त्र दिया, जिसके द्वारा वो किसी भी देवता को बुला सकती थी। एक दिन कुंती के मन में उस मन्त्र को आजमाने का खयाल आया। वह बाहर निकली तो देखा कि सूर्य अपनी पूरी भव्यता में चमक रहे थे। उनकी भव्यता देखकर वह बोल पड़ी – ‘में चाहती हूं, कि सूर्य देव आ जाएं।’

सूर्य देव आए और कुंती गर्भवती हो गयी, और एक बालक का जन्म हुआ। वो सिर्फ चौदह साल की अविवाहित स्त्री थी। उसे समझ नहीं आया कि ऐसे में सामाजिक स्थितियों से कैसे निपटा जाएगा। उसने बच्चे को एक लकड़ी के डिब्बे में रख दिया, और बिना उस बच्चे के भविष्य के बारे में सोचे, उसे नदी में बहा दिया। उसे ऐसा करने में थोड़ी हिचकिचाहट हुई, पर वो कोई भी कार्य पक्के उद्देश्य से करती थी। एक बार वो अगर मन में ठान लेतीं, तो वो कुछ भी कर सकती थी। उसका हृदय करुणा-शून्य था।

अधिरथ को मिला नन्हा कर्ण

धृतराष्ट्र के महल में कम करने वाला सारथी, अधिरथ, उस समय नदी के किनारे पर ही मौजूद था। उसकी नजर इस सुंदर डिब्बे पर पड़ी तो उसने उसको खोलकर देखा। एक नन्हें से बच्चे को देख कर वो आनंदित हो उठा, क्योंकि उसकी कोई संतान नहीं थी। उसे लगा कि ये बच्चा भगवान की ओर से एक भेंट है। वो इस डिब्बे और बच्चे को अपनी पत्नी राधा के पास ले गया। दोनों आनंद विभोर हो गए। उस डिब्बे की सुंदरता को देखकर वे समझ गए कि ये बच्चा किसी साधारण परिवार का नहीं हो सकता।

एक महान धनुर्धर बनने की इच्छा के साथ कर्ण द्रोण के पास गया। पर द्रोण ने उसे स्वीकार नहीं किया, और उसे सूतपुत्र कहकर पुकारा। सूतपुत्र का अर्थ होता है एक सारथी का पुत्र। ऐसा करके द्रोण ने इस ओर इशारा किया कि वो नीची जाती का है। इस अपमान से कर्ण को बहुत ठेस पहुँची।

राजा या फिर रानी ने इस बच्चे को छोड़ दिया है। वे ये तो नहीं जानते थे कि किसने इस बच्चे को ऐसे छोड़ दिया है, पर उसे पाकर वे बहुत खुश थे। क्योंकि इस बच्चे के कारण वे जीवन में पूर्णता महसूस कर रहे थे।उस बच्चे को बाद में कर्ण नाम से जाना गया। वह एक अद्वितीय मनुष्य था। जन्म से ही उसके कानों में सोने के कुंडल और उसके छाती पर एक प्राकृतिक कवच था। वह अद्भुत दिखता था। राधा ने बहुत प्रेम से उसका पालन-पोषण किया। अधिरथ खुद एक सारथी था, इसलिए वह कर्ण को भी रथ चलाना सिखाना चाहता था। पर कर्ण तो धनुर्विद्या सीखने के लिए बेचैन था। उन दिनों, सिर्फ क्षत्रियों को शस्त्रों और युद्ध कला की शिक्षा ग्रहण करने का अधिकार था। ये राजा की ताकत को सुरक्षित रखने का एक सरल तरीका था। क्योंकि अगर हर कोई शस्त्रों का इस्तेमाल करना सीख जाता, तो फिर सभी शस्त्रों का इस्तेमाल करने लगते। कर्ण क्षत्रिय नहीं था, इसलिए उसे किसी भी शिक्षक ने स्वीकार नहीं किया।

कर्ण को अस्वीकार किया द्रोण नें

एक महान धनुर्धर बनने की इच्छा के साथ कर्ण द्रोण के पास गया। पर द्रोण ने उसे स्वीकार नहीं किया, और उसे सूतपुत्र कहकर पुकारा। सूतपुत्र का अर्थ होता है एक सारथी का पुत्र। ऐसा करके द्रोण ने इस ओर इशारा किया कि वो नीची जाती का है। इस अपमान से कर्ण को बहुत ठेस पहुँची। भेदभाव और अपमान का बारबार सामना करने की वजह से एक सीधा-सच्चा इंसान एक अधम इंसान में बदल गया। जब भी कोई उसे सूतपुत्र कहता, तो उसकी अधमता इतनी ऊँची उठ जाती, जितनी कि उसकी प्रकृति में नहीं था। द्रोण द्वारा क्षत्रिय न होने के कारण अस्वीकार किये जाने पर, कर्ण ने परशुराम के पास जाने का फैसला किया। परशुराम युद्ध कलाओं के सबसे महान शिक्षक थे।

Wednesday 15 February 2017

क्या विदुर दुर्योधन को जन्म के समय ही मारना चाहते थे ?



पिछले ब्लॉग में आपने पढ़ा की कैसे कौरवों के आगमन  के समय ही हस्तिनापुर में अशुभ संकेत गूंजने लगे थे, आगे पढ़ते हैं कि कैसे विदुर ने दुर्योधन को जन्म के समय ही पहचान लिया था, और धृतराष्ट्र को इस बारे में आगाह किया था…

एक साल बाद, पहला घड़ा फूट गया और उससे एक विशाल शिशु निकला जिसकी आंखें सांप की तरह थी। मतलब उसकी आंखें झपक नहीं रही थीं, वे स्थिर और सीधी थीं। फिर से अशुभ ध्वनियां होने लगीं और अशुभ संकेत दिखने लगे। जो चीजें रात में होनी चाहिए, वे दिन में होने लगीं। नेत्रहीन धृतराष्ट्र को महसूस हुआ कि कुछ गड़बड़ है, उन्होंने विदुर से पूछा, ‘यह सब क्या हो रहा है? कुछ तो गड़बड़ है। कृपया मुझे बताओ, क्या मेरा बेटा पैदा हो गया?’ विदुर बोले, ‘हां, आपको पुत्र की प्राप्ति हुई है।’ धीरे-धीरे सारे घड़े फूटने लगे और सभी बेटे बाहर आ गए। एक घड़े से एक नन्हीं सी बच्ची निकली।

विदुर ने बताया, ‘आपके 100 पुत्रों और एक पुत्री की प्राप्ति हुई है। मगर मैं आपको सलाह देता हूं – अपने बड़े बेटे को खत्म कर दीजिए।’ धृतराष्ट्र बोले, ‘’क्या, तुम मुझे अपने ज्येष्ठ पुत्र को मारने के लिए कह रहे हो? यह क्या बात हुई?’ विदुर ने कहा, ‘अगर आपने अपने ज्येष्ठ पुत्र को मरवा डाला, तो आप अपना, कुरु वंश और मानव जाति का बहुत बड़ा उपकार करेंगे। आपके फिर भी 100 बच्चे रहेंगे – 99 बेटे और एक बेटी। इस बड़े पुत्र के नहीं होने से आपकी बाकी संतानों को कोई नुकसान नहीं होगा। मगर उसके साथ वे हमारे आस पास की दुनिया में विनाश ले आएंगे।

इस बीच, गांधारी ने अपने बड़े पुत्र दुर्योधन को गोद में उठा लिया। उसे कोई आवाजें सुनाई नहीं दी, न ही कोई अशुभ संकेत महसूस हुआ। वह अपने बड़े पुत्र को लेकर बहुत उत्साहित थी। वह उसे पालने और बड़ा करने के लिए बहुत आतुर थी। विदुर ने कहा, ‘बुद्धिमान लोगों ने हमेशा से कहा है कि परिवार के कल्याण के लिए किसी व्यक्ति का बलिदान, गांव के कल्याण के लिए परिवार का बलिदान और देश के कल्याण के लिए गांव का बलिदान किया जा सकता है। यहां तक कि किसी अमर आत्मा के लिए दुनिया का बलिदान भी किया जा सकता है।’

‘हे भ्राता, आपका यह शैतानी बच्चा मानवता की आत्मा को नष्ट-भ्रष्ट करने के लिए यमलोक से आया है। उसे अभी मार डालिए। मैं शपथपूर्वक कहता हूं कि उसके भाईयों को कोई नुकसान नहीं होगा और आप अपने 99 राजकुमारों के साथ आनंद से रह सकेंगे। मगर इसे जीवित नहीं छोड़ना चाहिए।’ लेकिन अपने सगे बेटे से धृतराष्ट्र के मोह ने उनकी बुद्धि खराब कर दी। फिर दुर्योधन अपने 100 भाई-बहनों के साथ हस्तिनापुर के महल में पला-बढ़ा, जबकि पांडव जंगल में बड़े हुए।

Tuesday 14 February 2017

कौरवों के जन्म पर मिले अशुभ संकेत ।


धृतराष्ट्र जन्मजात नेत्रहीन थे, मगर उनकी पत्नी गांधारी अपनी इच्छा से नेत्रहीन थी। धृतराष्ट्र चाहते थे कि उनके भाइयों की संतान होने से पहले उनको संतान हो जाए क्योंकि नई पीढ़ी का सबसे बड़ा पुत्र ही राजा बनता। उन्होंने गांधारी से खूब प्रेमपूर्ण बातें कीं ताकि वह किसी तरह एक पुत्र दे सके। आखिरकार गांधारी गर्भवती हुई। महीने गुजरते गए, नौ महीने दस में बदले, ग्यारह महीने हो गए, मगर कुछ नहीं हुआ। उन्हें घबराहट होने लगी। फिर उन्हें पांडु के बड़े पुत्र युधिष्ठिर के जन्म की खबर मिली। धृतराष्ट्र और गांधारी तो दुख और निराश में डूब गए।

चूंकि युधिष्ठिर का जन्म पहले हुआ था इसलिए स्वाभाविक रूप से राजगद्दी पर उसी का अधिकार था। ग्यारह, बारह महीने बीतने के बाद भी गांधारी बच्चे को जन्म नहीं दे पा रही थी। वह बोली, ‘यह क्या हो रहा है? यह बच्चा जीवित भी है या नहीं?

यह इंसान है या कोई पशु?’ हताशा में आकर उसने अपने पेट पर मुक्के मारे, मगर कुछ नहीं हुआ। फिर उसने अपने एक नौकर को एक छड़ी लाकर अपने पेट पर प्रहार करने को कहा। उसके बाद, उसका गर्भपात हो गया और मांस का एक काला सा लोथड़ा बाहर आया। लोग उसे देखते ही डर गए क्योंकि वह इंसानी मांस के टुकड़े जैसा नहीं था। वह कोई बुरी और अशुभ चीज लग रही थी।

अशुभ संकेत मिलने लगे

अचानक पूरा हस्तिनापुर शहर डरावनी आवाजों से आतंकित हो उठा। सियार बोलने लगे, जंगली जानवर सड़क पर आ गए, दिन में ही चमगादड़ उड़ने लगे। ये शुभ संकेत नहीं थे और इसका मतलब था कि कुछ बुरा होने वाला है। इसे देखकर ऋषि-मुनि हस्तिनापुर से दूर चले गए। चारों ओर यह खबर फैल गई कि वहां से सारे ऋषि चले गए हैं। विदुर ने आकर धृतराष्ट्र से कहा, ‘हम सब बहुत बड़ी मुसीबत में पड़ने वाले हैं।’ धृतराष्ट्र संतान के लिए इतने उत्सुक थे कि उन्होंने कहा, ‘जाने दो।’ वह देख नहीं सकते थे, इसलिए उन्होंने पूछा, ‘क्या हुआ है? हर कोई चीख-चिल्ला क्यों रहा है और यह सारा शोर किसलिए है?’

फिर गांधारी ने व्यास को बुलाया। एक बार जब व्यास ऋषि एक लंबी यात्रा से लौटे थे तो गांधारी ने उनके जख्मी पैरों में मरहम लगाया था और उनकी बहुत सेवा की थी। तब उन्होंने गांधारी को आशीर्वाद दिया था, ‘तुम जो चाहे मुझसे मांग सकती हो।’

गांधारी बोली, ‘मुझे सौ पुत्र चाहिए।’ व्यास बोले, ‘ठीक है, तुम्हारे 100 पुत्र होंगे।’ अब गर्भपात के बाद गांधारी ने व्यास को बुलाया और उनसे कहा, ‘यह क्या है? आपने तो मुझे 100 पुत्रों का आशीर्वाद दिया था। उसकी बजाय मैंने मांस का एक लोथड़ा जन्मा है, जो इंसानी भी नहीं लगता, कुछ और लगता है। इसे जंगल में फेंक दीजिए। कहीं पर दफना दीजिए।’

व्यास बोले, ‘आज तक मेरी कोई बात गलत नहीं निकली है, न ही अब होगी। वह जैसा भी है, मांस का वही लोथड़ा लेकर आओ।’ वह उसे तहखाने में लेकर गए और 100 मिट्टी के घड़े, तिल का तेल और तमाम तरह की जड़ी-बूटियों को लाने के लिए कहा। उन्होंने मांस के उस टुकड़े को 100 टुकड़ों में बांटा और उन्हें घड़ों में डालकर बंद करके तहखाने में रख दिया। फिर उन्होंने देखा कि एक छोटा टुकड़ा बच गया है। वह बोले, ‘मुझे एक और घड़ा लाकर दो। तुम्हारे 100 बेटे और एक बेटी होगी।’ उन्होंने इस छोटे से टुकड़े को एक और घड़े में डाल कर सीलबंद कर दिया और उसे भी तहखाने में डाल दिया। एक और साल बीत गया। इसीलिए कहा जाता है कि गांधारी दो सालों तक गर्भवती रही थी – गर्भ एक साल उसकी कोख में और दूसरे साल तहखाने में था।

Monday 13 February 2017

श्री कृष्ण और राधा ।


हालांकि कृष्ण और राधा ने बचपन के कुछ ही साल साथ-साथ गुजारे, फिर भी आज हजारों साल बाद भी हम उन दोनों को अलग-अलग करके नहीं देख पाते। ऐसा कौन सा जादू था उस रिश्ते में?

जब कृष्ण ने गोपियों के कपड़े चुराए तो यशोदा माँ ने उन्हें बहुत मारा और फिर ओखली से बांध दिया। कृष्ण भी कम न थे। मौका मिलते ही उन्होंने ओखली को खींचा और उखाड़ लिया और फौरन जंगल की ओर निकल पड़े, क्योंकि वहीं तो उनकी गायें और सभी सथी संगी थे।

अचानक जंगल में उन्हें दो महिलाओं की आवाजें सुनाईं दीं। कृष्ण ने देखा वे दो बालिकाएं थीं, जिनमें से छोटी वाली तो उनकी सखी ललिता थी और दूसरी जो उससे थोड़ी बड़ी थी, उसे वह नहीं जानते थे, लेकिन लगभग 12 साल की इस लड़की की ओर वह स्वयं ही खिंचते चले गए।

16 साल की उम्र के बाद कृष्ण राधा से कभी नहीं मिले। लेकिन सात से सोलह साल की उम्र तक, राधा के साथ गुजारे उन नौ सालों में राधा हमेशा के लिए कृष्ण का हिस्सा बन गई।

दोनों लड़कियों ने उनसे पूछा कि क्या हुआ? तुम्हें इस तरह किसने बांध दिया? यह तो बड़ी क्रूरता है! किसने किया यह सब? उन दोनों में जो 12 वर्षीय लड़की थी, उसका नाम राधे था। जिस पल राधे ने सात साल के कृष्ण को देखा, उसके बाद वे कभी उनकी आँखों से ओझल नहीं हुए। जीवन भर कृष्ण राधे की आँखों में रहे, चाहे वह शारीरिक तौर पर उनके साथ हों या न हों। हालांकि बचपन के कुछ ही साल उन दोनों ने साथ-साथ गुजारे थे, फिर भी आज हजारों साल बाद भी हम राधा और कृष्ण को अलग-अलग करके नहीं देख पाते।

राधा

16 साल की उम्र के बाद कृष्ण पूरे जीवन राधा से कभी नहीं मिले। लेकिन सात साल की उम्रसे लेकर 16 साल तक के उन नौ सालों में, जो उन्होंने राधे के साथ गुजारे, राधे उनका एक हिस्सा बन गईं। वह जीवन में बहुत सारे लोगों से मिले, बहुत सारे काम किए। उन्होंने कई विवाह भी किए, लेकिन राधे उनके जीवन में हमेशा बनी रहीं। राधा के शब्दों में, “मैं उनमें रहती हूं और वह मुझमें। इससे कोई अंतर नहीं पड़ता कि वह कहां हैं और किसके साथ रहते हैं। वह हमेशा मेरे साथ हैं। कहीं और वह रह ही नहीं सकते।“ यानी जिस पल उन दोनों ने एक दूसरे को देखा था, उसके बाद से उन्हें एक दूसरे से अलग करके नहीं देखा गया। आज करीब तीन हजार साल बाद भी आप उन्हें अलग करके नहीं देख सकते। कुछ आचारी धार्मिक लोगों ने इतिहास में कुछ जगहों पर इन दोनों को अलग करने की कोशिश की। उन्होंने राधे को अलग करने की कोशिश की, क्योंकि राधे महाभारत की बदचलन लड़की है। वह सामाजिक ताने-बाने में फिट नहीं बैठती। इसलिए वे राधे को कृष्ण से अलग करके कृष्ण को ज्यादा ईश्वरीय स्वरूप में प्रस्तुत करना चाहते थे। लेकिन तमाम कोशिशों के बावजूद वे राधा को कृष्ण के जीवन से बाहर नहीं कर सके।

कृष्ण को अपनी बांसुरी पर बड़ा गर्व था। राधे से अलग होते समय कृष्ण ने न सिर्फ अपनी बांसुरी राधे को दे दी, बल्कि उसके बाद जीवन में फिर कभी उन्होंने बांसुरी नहीं बजाई।

खैर, राधे ने कृष्ण को लकड़ी की ओखली से खोलने की कोशिश की। मगर कृष्ण उन्हें रोक दिया और कहा, ‘इसे मत खोलो। मैं चाहता हूं कि इसे मां ही खोले, जिससे उनका गुस्सा निकल सके।’ इन लड़कियों ने पूछा, ‘क्या हम तुम्हारे लिए कुछ और कर सकते हैं?’ इस पर कृष्ण ने अपनी सखी ललिता से कहा, ‘मुझे पानी चाहिए। मेरे लिए पानी ले आओ।’ दरअसल, पानी के बहाने वह उसे वहां से हटाना चाहते थे। ललिता पानी लेने चली गई और सात साल के कृष्ण और 12 साल की राधा साथ-साथ बैठ गए। इस एक मुलाकात में ही ये दोनों एक दूसरे में विलीन होकर एक हो गए और फिर उसके बाद से उन्हें कोई अलग न कर सका।
कृष्ण जब 16 साल के हुए, जिंदगी ने उनके रास्ते बदल दिए। कृष्ण को अपनी बांसुरी पर बड़ा गर्व था। उनकी बांसुरी थी ही इतनी मंत्रमुग्ध कर देने वाली। लेकिन 16 साल की उम्र में जब वह शारीरिक तौर से राधे से अलग हुए, तो उन्होंने न सिर्फ अपनी बांसुरी राधे को दे दी, बल्कि उसके बाद जीवन में फिर कभी उन्होंने बांसुरी नहीं बजाई।